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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन तृतीयोहेशक ] [ ११६ मेरी हैं, इस प्रकार आत्मभिन्न पौद्गलिक वस्तुओं में ममत्व करता हुआ प्राणी हमेशा जीवन जीना चाहता है परन्तु कर्मविपाक से उसे उस भव की आयु के क्षय होने पर क्षेत्र, वास्तु आदि प्रिय पदार्थ यहीं छोड़कर मरना पड़ता है । अगर उसका वश चलता हो तो कभी इन प्रिय पदार्थों का त्याग न करे और सदा जीवित रहे परन्तु कर्मबन्धनों से पराधीन बने हुए प्राणी को सभी प्रिय से प्रिय पदार्थों को छोड़कर मरना पड़ता है। यह लाचारी है परन्तु इस लाचारी को प्राणी पहिले से ही नहीं समझता है। इसलिए पौद्गलिक वस्तुओं में मोह और आसक्ति रखता है और इसी आसक्ति के कारण दुःख का अनुभव करता है। भारत्तं, विरतं, मणिकुण्डलं, सहहिरणणेण इत्थियाश्रो परिगिझ तत्थेव रत्ता ‘ण इत्थ तवो वा, दमो वा, नियमो वा दिस्सई' संपुगणं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेइ। संस्कृतच्छाया-प्रारक्तं, विरक्तं, मणिकुण्डलं, हिरण्येन सह स्त्रीः परिगृह्य तत्रैव रक्ताः 'नात्र तपोवा, दमो वा, नियमो वा दृश्यते सम्पूर्णम् बाले जीवितुकामे लालप्पमानो मूढो विपर्यासमुपैति । शब्दार्थ-आरत्तं रंगा हुआ वस्त्रादि। विरत्तं विविध रंग के वस्त्रादि । मणिकुण्डलं= रत्न, आभूपण। सहहिरएणेण इत्थियात्रो स्वर्ण और स्त्री आदि। परिगिझ प्राप्त करके । तत्थेवउनमें । रत्ता-आसक्त हो जाते हैं । ण इत्थ तवो वा=यहाँ न तप । दमो वा अथवा इंद्रियदमन। नियमो वा अहिंसादि व्रत । दिस्सइ फलवान् देखे जाते हैं, इस प्रकार । संपुरणं बालेनिरे अज्ञानी । जीविउकामे असंयमित जीवन की कामना वाला । लालप्पमाणे भोगों के लिए बकबक करता हुआ । मूढे=मूढ़ बना हुआ। विपरियासमुवेइ=विपरीत प्रवृत्ति करता है। ____ भावार्थ-वे अज्ञानी प्राणी कदाचित् कर्मोदय से रंगविरंगे वस्त्र, मणिरत्न, कुण्डल, सोना-चंदी और स्त्रियां प्राप्त करके उन्हीं में आसक्त बने रहते हैं । तथा वे निरे अज्ञानी और मूढ प्राणी असंयमित जीवन की कामना वाले बनकर भोगों की लालसा से विपरीत प्रवृत्ति करते हुए इस प्रकार बकवाद करते हैं कि इस संसार में अनशनादि तप, इन्द्रियदमन और अहिंसादि नियम किसी काम के नहीं हैं । विवेचन-मोह और आसक्ति का वर्णन उपर किया जा चुका है। क्षेत्र, वास्तु, रंगविरंगे वस्त्र, मणि, रत्न, आभूषण, स्वर्ण और स्त्रियाँ आदि भोगोपभोग के साधन प्राप्त होने पर यह मोहासक्त प्राणी उन्हीं को सर्वस्व समझ लेता है और पर वस्तु को अपनी मान लेता है। आत्म वस्तु का भान भुलाकर परवस्तुओं में आसक्ति करता है यही विपरीत प्रवृत्ति है । समग्र साधनों की उपस्थिति होने पर भी जहाँ आसक्ति है वहाँ मानसिक दुःख नियमतः होता ही है। क्योंकि कहीं ये साधन चले न जाय, ये मुझे न छोड़ दें, इस प्रकार भय और शंका बनी रहती है । इस प्रकार आसक्त बने हुए निरे अज्ञानी, असंयमित जीवन की लालसा वाले मूढ प्राणी यों बकयाद करते हैं कि तप, दम नियमादि से कोई लाभ नहीं है। ये किसी काम के नहीं हैं। इनका सेवन करने से For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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