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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir .११६ ] आचाराज-सूत्रम् .. भावार्थ---इसलिए बुद्धिमान् प्राणी उच्चगोत्र-प्राप्ति का हर्ष न करे और नीचगोत्र प्राप्ति के प्रति कोध न करे । और यह याद रक्खे कि प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है । यह जानकर पांच प्रकार की समिति से युक्त बने और सभी के साथ विवेक पूर्ण व्यवहार करें । यह स्मरण में रखना चाहिये कि जीव अपने ही किये हुए प्रमाद के कारण अंधा, बहिरा, गूंगा, टूटा, काणा, वौना, कुबड़ा, काला, चितकबरा होता है और अनेक योनियों में जन्म धारण करता है और विविध प्रकार की यातमाएँ सहन करने के लिए विवश होता है ।। विवेचन-संसार में परिभ्रमण करते हुए प्राणी की अवस्थाएँ कदापि एक-सी नहीं हो सकती। सूर्य और चन्द्रमा का भी उदय होता है और अस्त भी होता है। गाड़ी के घूमते हुए चक्र के समान मनुष्यों की अवस्थाएँ बदला करती हैं । जो एक बार छत्र-चंवर धारी सम्राट् के रूप में दिखाई देता है वही अनाथ बनकर दर-दर भीख माँगता नजर आता है। कहा भी है: होऊण चक्कवट्टी पुहइपद विमलपंडरच्छत्तो । सो चेव नाम भुज्जो अणाहसालालो होइ ॥ दूसरे जन्मों की बात छोड़ दें और केवल एक ही जन्म का विचार करते हैं तो भी प्राणी एक ही जन्म में तथाविध कर्मोदय से अनेक प्रकार की अवस्थाएँ देखता है। एक प्राणी आज करोडों की सम्पत्ति का मालिक है वही कल दैविक-प्रकोप या कर्मों के प्रकोप से दरिद्र बन जाता है । रुस का जार एकदिन सर्वेसर्वा था और एक दिन पदच्युत कर दिया गया, एक दिन नैपोलियन से सारा संसार धूजता था और उसे युरोप का सम्राट्-सा समझता था वह बन्दी के रूप में अपना जीवन बिताता है । एक दिन जो दरिद्रों का सरताज़ था वह एक दिन सम्राटों का सरताज होता हुआ दिखाई देता है। इन सभी बातों का विचार करके बुद्धिमान व्यक्ति अपनी उच्चावस्था का अभिमान न करे क्योंकि यह तो चलती छाया है । जो आज है वह कल नहीं है। इसलिए धनसम्पत्ति, शारीरिक बल, ज्ञानबल, आदि किसी का भी अभिमान न करे । और यह विचारे कि मुझ से बढ़कर अनेक व्यक्ति संसार में हैं, मैं उनके सामने किस गिनती में हूँ-इस प्रकार अपने अभिमान को दूर करे । जब अपनी हीनावस्था पर विषाद होने लगता है तब प्राणी को यह विचारना चाहिये कि दुनियां में अनेकों प्राणी मुझ से भी ज्यादा दुखी हैं अथवा मैंने पूर्वभवों में अनेकों दुःख सहन किये हैं उनके सामने यह दुःख किस गिनती में हैं। इस प्रकार अपने विषाद को शान्त करना चाहिये। सारांश यह है कि प्राणी अपनी उच्च अवस्था का हर्ष न करे और निम्न अवस्था पर विषाद न करे। प्रायः मानग्रसित व्यक्ति अपने अभिमान के कारण दूसरों का तिरस्कार करने लग जाता है। जात्यादि की उच्चता के कारण वह अन्य जनों को अछूत समझ कर उनका तिरस्कार करने लगता है परन्तु यह प्रत्येक बुद्धिमान को ध्यान में रखना चाहिये कि जैसा सुख और मान उसे स्वयं को प्यारा है वैसा ही दूसरों को भी सुख और मान प्यारा है। प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है। छोटे से छोटे कीड़े से लगाकर इन्द्र तक सभी को एक-सा सुख प्रिय लगता है अतः यह ध्यान में रखना For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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