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लोक-विजय नाम द्वितीय अध्ययन
-द्वितीय उद्देशक
लोकविजय अध्ययन के प्रथम उद्देशक में माता-पिता आदि सम्बन्धों की मीमांसा करते हुए स्वजनों के मोह सम्बन्ध का त्याग करने का निर्देश किया गया है । संयम अंगीकार करने के लिये माता-पिता, पति-पत्नी आदि सम्बन्धों की आसक्ति मिट जानी चाहिये । इस प्रकार मोह सम्बन्ध त्यागने पर संयम के प्रति प्रवृत्ति हो सकती है, ऐसा करने पर ही संयम के प्रति भावना और अभिरुचि हो सकती है । यही धात प्रथम उद्देशक के अन्त में "आयटुं समणुवासेन्जासि" (आत्म कल्याण के लिए सम्यक् यत्न करना चाहिये ) इन शब्दों से संयम अंगीकार करने का उपदेश देते हुए कही गई है। तदनुसार किसी मोक्षअभिलाषी प्राणी ने मातापितादि लोक पर विजय प्राप्त करके चारित्रमार्ग ग्रहण कर लिया हो तो उस चारित्र की दृढ़ता के लिये, क्या क्या प्रयत्न करने चाहिये, और कदाचित् चारित्रमार्ग की कठिनता के कारण, परिषहों और उपसों से पीड़ित होने पर संयम के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाय तो उस अरुचि का निवारण करने का क्या मार्ग है सो इस द्वितीय उद्देशक में बताया जाता है । तथा संयम की पूर्ण दृढ़ता होने पर मोक्ष अविलम्ब प्राप्त होता है यह भी इस उद्देश में बताते हुए सूत्रकार फरमाते हैं
अरइं प्राउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के । संस्कृतच्छाया-अरतिमावर्तेत स मेधावी क्षणे मुक्तः ।
शब्दार्थ-अरई-संयम के प्रति अरुचि को। आउट्टे दूर करे । से मेहावी वह बुद्धिमान् । खणंसि=अल्पकाल में । मुक्के मोक्ष प्राप्त करता है ।
भावार्थ-हे शिष्य ! बुद्धिमान् साधक को अगर अच्छे बुरे निमित्तों के कारण संयम के मार्ग में अरुचि उत्पन्न हो जाय तो उसे दूर कर देनी चाहिये । ऐसा करने से अल्पकाल में ही कर्मबन्धन से छुटकारा हो सकता है।
विवेचन-साधना का मार्ग अति कठिन है। त्यागमार्ग पर चलना असि-धारा पर चलने के समान कठिन है । इस मार्ग पर चलने का अधिकारी शूरवीर ही है । कायर प्राणी तो इसकी विषमता और कठिनता से इसपर चलने का साहस ही नहीं कर सकता है । कदाचित साहस कर लेता है तो मध्य में ही पथभ्रष्ट होकर न इधर का रहता है और न उधर का रहता है, बीच में ही दुःख पाता है। इस वीरों द्वारा
आचीर्णमार्ग पर चलना वीरों का ही काम है । इस साधना के मार्ग में कभी प्रलोभन, कभी विपत्ति, कभी निन्दा, कभी स्तुति इत्यादि अनेकों पतन के कारण सन्मुख उपस्थित होते हैं । इन विघ्न-बाधाओं के आने
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