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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन द्वितीय उद्देशक ] [१०३. पर भी जिसको अपने लक्ष्य का बारवार ध्यान रहता है वह तो उन विघ्नबाधाओं को पार कर लेता है और लक्ष्य प्राप्त करता ही है परन्तु जो इन विघ्न-बाधाओं के आने पर अपना मूल लक्ष्य ही खो देता है वह इन बाह्य निमित्तों के जाल में फंस जाता है और उभयतो भ्रष्ट बनता है। संयम में अरति होने का कारण इन्द्रियजन्य सुखों में रति होना है। इन्द्रिय सुखों की अभिलाषा के बिना संयम में अरति हो ही नहीं सकती है । कण्डरीक को इन्द्रियसुखों की अभिलाषा हुई तो संयम में अरति उत्पन्न हुई । सांसारिक विषयों में, माता, पिता, स्त्री आदि संयोगों में जब अरति उत्पन्न होती है तो संयम में रति होती है। जैसे पुण्डरीक को संयम के प्रति रति हुई । तात्पर्य यह है कि जब साधक को पूर्व संयोगों की प्रबलता से माता-पितादि संयोगरूप, विषयकषायादि से पैदा होने वाली संयम में अरति हो तो उसे दूर कर देना चाहिए। विषय कषाय आदि चिरपरिचित होने से शीघ्र ही आत्मा पर प्रभाव डालकर संयम में अरति उत्पन्न कर देते हैं इसीलिए प्रथम उद्देशक में विषय कषाय रूप लोक पर विजय प्राप्त करने का कहा गया है। प्राणी मोह-सम्बन्ध का त्याग करने पर ही संयम का अधिकारी होता है। संयम अंगीकार करने पर मनसा, वाचा, कर्मणा जब संयम में अनुरक्ति हो जाती है तो संयम की दुष्कर क्रियाएँ भी सुखरूप प्रतीत होने लगती हैं। जब अन्तःकरण पूर्वक सांसारिक विषों और इन्द्रियसुखों से विरक्ति हो जाती है और संयम में पूरी रति हो जाती है तो उस वीतरागी मुनि के सामने तीन लोक का वैभव और इन्द्र का प्रभुत्व भी तुच्छ है । कहा है कि: तणसंथारणिसरणोऽवि मुणिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावइ मुत्तिसुहं तं कत्तो चक्कवट्टीवि ॥ अर्थात्-आसक्ति, मद और मोह पर विजय प्राप्त करने वाला मुनि तृण के आसन पर बैठा हुआ भी जिस अनुपम शाश्वत सुख का अनुभव करता है उसके सामने चक्रवर्ती और इन्द्र का सुख किस गणना में है ? संयम में रति हो जाने पर दुःख का नामोनिशान भी बाकी नहीं रहता है । संयम की बाह्याभ्यन्तर क्रियाएँ उसको सुख रूप प्रतीत होती हैं। तभी कहा गया है कि: क्षितितलशयनं वा प्रान्तभैक्षाशनं वा, सहजपरिभवो वा नीचदुर्भाषितं वा । महति फलविशेषे नित्यमभ्युद्यताना, न मनसि न शरीरे दुःखमुत्पादयन्ति ॥ ___ अर्थात्-पृथ्वी पर शयन करना, भिक्षा से प्राप्त लूखा-सूखा भोजन, मनुष्यों का तिरस्कार, नीचों के कठिन दुर्वचनरूपी प्रहार इत्यादि दुःख मोक्ष के लिए समुत्थित हुए मुनियों को न शारीरिक और न मानसिक व्यथा उत्पन्न कर सकते हैं। संयतात्मा को संयम सेजो अनुपम शान्ति, जो अतुल सुखराशि उपलब्ध होती है वह देवताधिपति इन्द्र को भी नहीं है । ऐसा समझकर सांसारिक सुखों से वैराग्यमयी विरक्ति करके, संयम में अनुरक्ति करनी चाहिए। जब तक मोहादि का त्याग वैराग्यपूर्वक नहीं हुआ रहता है यहाँ तक वे मोहादि आध्यात्मिक दोष, साधकको संयम में परति पैदा कर सदा संतप्त करते रहते हैं। क्योंकि कहा भी है कि For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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