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द्वितीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
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समुद्र पार कर लिया जा सकता है, तुझे प्राप्त हुआ है। मनुष्य-भव के सिवाय और कोई ऐसा भव नहीं है जहाँ से मोक्ष हो सकता हो । देवता और नारकी मात्र सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक चारित्र वाले हो सकते हैं, तिर्यंच में देशधिरति ही हो सकती है । क्षेत्र से भी सुन्दर आर्य क्षेत्र प्राप्त हुआ है, काय से धर्माचरण करने योग्य अवसर प्राप्त हुआ है और भाव से क्षयोपशमादि करने का सुयोग हस्तगत हुआ है इसलिए इस अवसर को पहिचान कर आत्म-कल्याण के लिए यत्न करना श्रेयस्कर है। बार बार ऐसे अवसर नहीं आते हैं, हे आत्मन् ! बार बार इसका विचार कर। समय चूक जाने के बाद कुछ हाथ आने वाला नहीं है । 'जब चिड़ियन ने चुग खेत लिया तब पछताये क्या होता है ।' समय रहते ही सावधान होने के लिए सूत्रकार फरमाते हैं:
जाव सोयपरिणाणा परिहीणा नेत्तपरिण्णाला अपरिहीणा, घाणपरिणाला अपरिहीणा, जीहपरिणाणा अपरिहीणा, फरिसपरिणाणा अपरिहीणा एहिं विरूवरूवेहिं परणाणेहिं परिहीणेहिं श्रायटुं संमं समवसासित मि ।
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संस्कृतच्छाया- - यावत् श्रोत्रपरिज्ञानानि अपारहीनानि, नेत्रपरिज्ञानानि अपरिहीनानि, प्राणपरिज्ञानानि परिहीनानि, जिव्हापारज्ञानानि अपरिहीनानि, स्पर्शपरिज्ञानानि अपरिहीनानि इत्येतैः विरूपरूपैः प्रज्ञानैः अपरिहीनैः आत्मार्थं सम्यक् समनुवासयेः।
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शब्दार्थ( -- जाव - जब तक । सोयपरि०= श्रोत्रेन्द्रिय का विषय ग्रहण करना । अपरिहीणा = मन्द न पड़ जाय । नेत्तपरि० परि०=आंख का विषय ग्रहण मन्द न हो जाय । घाण०= नाक की शक्ति मन्द न हो । जीह ० = जीभ की शक्ति मन्द न पड़े। फरिस० = स्पर्श की शक्ति मन्द न पड़े । इच्चेएहिं इस प्रकार के । विरूवरूवेहि = अनेक प्रकार के । पण्णाणेहिं अपरिहीरोहिं= ज्ञानों की मन्दता न होने के पूर्व ही । आय = आत्मा, या मोक्ष के लिए । सम्मं सम्यग् रीति से । समवासिज्जासि = प्रयत्न करना चाहिए । त्ति बेमि ऐसा मैं कहता हूँ ।
भावार्थ - हे शिष्य ! जब तक कान, आंख, नाक, जीभ और स्पर्श आदि विज्ञानों की मंदता नवे उसके पहले ही आत्मकल्याण के लिए प्रयत्न करना योग्य और हितकारी है ।
-- उपसंहार
स्वजन और धन अनित्य और शाश्वत है। इनसे शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है। शाश्वत सुख की प्राप्ति करना सबका ध्येय है । परन्तु अशाश्वत से प्राणी शाश्वत की आशा करता है इसीलिए वह संतुष्ट नहीं हो सकता है । स्वजनों की आसक्ति से ममत्व और ममत्व से अहंकार और कार से सर्वनाश होता है अतः धन और स्वजन की आसक्ति को मिटाकर अनासक्त भाव से श्रात्म साक्षात्कार के लिये पुरुषार्थ करना चाहिये ।
इति प्रथमोद्देशक :
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