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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १०० ] [आचाराग-सूत्रम् विवेचन-ऊपर यह वर्णन किया गया है कि रागासक्त प्राणी अपने मन में यह समझता है कि मैं ही कुटुम्ब का पालन करने वाला हूं "मैं हूं तो इनका काम चलता है, नहीं तो इनके क्या हाल हो ?" ऐसा समझने में केवल मिथ्याभिमान रहा हुआ है। झूठे अभिमान के कारण वह ऐसा मान लेता है कि इन सभी को सुखी करने वाला मैं ही हूँ परन्तु वास्तविक दृष्टि से कोई किसी को सुखी और दुखी बनाने में समर्थ नहीं है। प्रत्येक प्राणी की अात्मा स्वयं सुख और दुःख को पैदा करने वाली है। क्या दूसरे की ताकत है जो किसी को सुखी और दुखो कर सके ? फिर यह अभिमान कैसा ! अभिमानी के इस अभिमान को अज्ञानता बताते हुए कहा गया है किः हुं करूं, हुं करूं, एज अज्ञानता, शकटनो भार जेम श्वान ताणे। सृष्टिमंडाण के सर्व एणी परे, जोगी जोगीश्वरा कोइक जाणे । . स्वाभाविक रीति से प्राणी स्वयं स्वकृत कर्मानुसार सुख दुख प्राप्त करते हैं। दूसरे व्यक्ति तो मात्र निमित्त कारण बनते हैं। अतः प्राणी का यह अभिमान करना कि मैं बड़ा परोपकारी हूँ , मैं बड़ा दानी हूँ, संसार में कर्ता-हर्ता मैं ही हूँ यह मात्र उसकी अज्ञानता है। जैसे कुत्ता यह समझता है कि सारी गाड़ी का भार मुझ पर ही है परन्तु वास्तव में उस पर क्या भार है ? कोई नहीं । उसी तरह प्राणी समझता है कि सबके पालन-पोषण का भार मुझ पर है और मैं पालन-पोषण करता हूँ तो यह उसका मिथ्याभिमान है। अतः कुटुम्बी जनों के लिए चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। उनके मोह के पीछे अपने आपको पाप के पंक में डूबाना अज्ञान मात्र है। ऊपर यह भी कहा गया है कि शरीर में रोगादि उत्पन्न होने पर और कुटुम्बी जनों द्वारा तिरस्कृत होने पर प्राणी को कोई त्राण और शरणरूप नहीं होता है। तब उस प्राणी को अपने मन में विचार करना चाहिए कि ये सब मेरे किए कमों का फल है। किए हए कमों के फल को भोगे बिना छटकारा नहीं है अतः कायरता नहीं लाते हुए मुझे शान्ति से सब कष्ट सहन करने चाहिए। अगर मैं ऐसा न करूं तो भी परवश होकर मुझे कर्म-फल भोगने के लिए कष्ट सहने ही पड़ेंगे तो मैं स्ववश होकर ही उनको क्यों न सह लं ? स्ववश होकर सहन करने में विशेषता है अन्यथा परवश होकर तो तुझे सहन करने ही पड़ेंगे। कहा भी है: सह कलेवर ! दुःखमचिन्तयत्, स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा । बहुतरं च सहिष्यसि जीव हे, परवशो नं च तत्र गुणोऽस्ति ते॥ ___ इस शरीर के रोगग्रस्त और मृत्यु-कवलित होने पर प्राणी दिग्मूढ़ बन जाता है अतः सूत्रकार उपदेश फरमाते हैं कि जब तक शरीर रोग और मृत्यु से आक्रान्त नहीं हुआ है, जरा और मरण ने हमला नहीं किया है उसके पहिले ही यौवनावस्था में ही-सावधान होकर आत्महित करने की प्रवृत्ति अंगीकार करनी चाहिए । यही सच्चा पुरुषार्थ है। सच्चे प्रात्म-स्वरूप को प्रकट करने के लिए जो साधन, जो योग्यता और जो अवसर इस मनुष्य भव में प्राप्त हुए हैं वे पुनः पुनः प्राप्त होने वाले नहीं है । अतः हे आत्मन् ! इस अमूल्य दुर्लभ अवसर को पहिचान । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों तरफ से सुन्दर सुअवसर प्राप्त हुआ है । द्रव्य से जंगमत्व, पंचेन्द्रियत्व, विशिष्ट जाति, कुल, बल, आरोग्य, आयुष्य श्रादि सम्पन्न मनुष्य-भव-जहाँ से संसार For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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