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द्वितीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ]
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कहते हैं कि महान विजयी सिकन्दर ने मरते समय अपने सामने अपनी विपुल सम्पत्ति का ढेर लगवाया और उसको देखकर आसू बहाते हुए बोला कि, जिस सम्पत्ति के लिए मैंने मैकड़ों लड़ाइयाँ लड़ीं, हजारों सैनिकों के प्राण खोये, असंख्य प्राणियों को मारा, सेना लेकर दूर दूर विदेशों में फिरता रहा, क्या इस अपरिमित सम्पत्ति में से एक तार भी मेरे साथ नहीं आयेगा ? आखिर यह हुआ:
“सिकन्दर जब चला दुनियां से दोनों हाथ खाली थे” । हाय धन की अशरणता ! अतः बुद्धिमान् प्राणी का यह कर्त्तव्य है कि वह आसक्ति का त्याग करे । धन का ममत्व त्यागे । धन की अशरणता का विचार करे ।
जेहिं वा सद्धिं संवसह ते वा ां एगया नियगा तं पुव्विं परिहरति, सोवा ते नियगे पच्छा परिहरेज्जा, नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा, तुमपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा ।
संस्कृतच्छाया - यैव सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजकाः तं पूर्वे परिहरन्ति स वा तान्निजकान् पश्चात् परिहरेत् नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा । शब्दार्थ — परिहरति छोड़ देते हैं-शेष पूर्ववत् ।
भावार्थ – रोगादि उत्पन्न होने पर जिन कुटुम्बियों के साथ वह रहता है, जिनके लिए वह धन एकत्रित करता है वे ही कुटुम्बी कुष्ट क्षय दि रोगों से पीड़ित होने पर पहिले या बाद में उसे छोड़ देते हैं अथवा वह रोगी स्वयं घबराकर उन्हें छोड़ देता है । ऐसे समय यह धन और स्वजन कोई भी रक्षा करने और शरण देने में समर्थ नहीं है, इसका पुनः पुनः चिन्तन करना चाहिए |
जात् दुक्खं पत्ते सायं प्रणभिक्कतं च खलु वयं संपेहाए खणं जाहि पंडिए ।
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संस्कृतच्छाया- -ज्ञात्वा दुःख प्रत्येकं सात, अनभिक्रान्तञ्च खल वयः संप्रेक्ष्य क्षणं जानाहि पण्डित !
शब्दार्थ - पत्तेयं प्रत्येक प्राणी को । दुवखं दुख | सायं = सुख | जाणिचु-जान करके । श्रणमिक्कतं शेष रही हुई । वयं = आयु को । संपेहाए - देखकर | पंडिए - हे पंडित । खर्ण= अवसर को | जाणाहि = पहचानो ।
भावार्थ - प्रत्येक प्राणी स्वयं अपने सुख और दुःख का निर्माता है और स्वयं ही सुख दुःख: का भोक्ता हैं यह जानकर, तथा अब भी कर्तव्य और धर्म अनुष्ठान करने की आयु को शेष रही हुई जानकर हे पंडित पुरुष ! अवसर को पहिचानो ।
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