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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [प्राचाराग-सूत्रम् संस्कृतच्छाया- इहैकेषाम् असंयतानाम् भोजनाय उपादितशेषेण वा सन्निधिसनिचयः क्रियते ततस्तस्यैकदा रोगसमुत्पादा समुत्पद्यन्ते । शब्दार्थ-इह इस संसार में । एगेसिं-एक एक । असंजयाण=असंयतियों के । भोयणाए-उपभोग के लिए । उवाइयसेसेण-उपभोग करने के बाद बचे हुए । वा अथवा । संनिहिसंनिचयो-द्रव्य का संग्रह । किज्जा किया जाता है तो कालान्तर में । से-उसको । एगयाकदाचित् । रोगसमुप्पाया रोगादि के उपद्रव । समुप्पज्जति पैदा हो जाते हैं। भावार्थ-इस संसार में एक एक प्राणी परिग्रह की भावना से अपने पुत्र अथवा कुटुंबियों को आगे काम देगा इस आशा से उपभोग के बाद बचा हुआ या बिना स्वयं उपभोग किये हुए सारा का सारा धन संग्रह करते जाते हैं। परन्तु संयोगवश कालान्तर में उनके शरीर में रोग के उपद्रव खड़े हो जाते हैं और वह स्वयं उस अपार धनराशि का भोग नहीं कर सकते हैं तो भविष्य की तो बात ही क्या ? . विवेचन-धन की अशरणता सूर्य के समान स्पष्ट है। इसके विवेचन की कोई आवश्यकता नहीं है। धन सभी तरह दुःख देने वाला है । अत्यन्त कठिनाइयों से धन कमाया जाता है । अतः धन की प्राप्ति में भी दुख । धन व्यय किया जाता है तो भी दुख, देता है, धन का उपभोग करते हैं तो भी दुख,धन जाता है तो भी दुख, धन संग्रह करते हैं तो भी दुख उसकी रक्षा करने की सदा चिन्ता रखनी पड़ती है सो दुख । श्राते हुए, जाते हुए, व्यय करते हुए, संग्रह करते हुए सभी तरह से यह धन दुखदाई है; तदपि परिग्रह की भावना वाला व्यक्ति अत्यन्त कठिनाइयों का सामना करके, भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, वर्षा और शरीर की पर्वाह नहीं करके धन उपार्जन करता है । उपार्जित धन की कठिनाइओं का स्मरण करके वह प्राणी उसके उपभोग करने में भी दुःख का अनुभव करता है । भोगान्तराय कर्म के कारण वह प्राणी उसका उपभोग नहीं कर सकता है और केवल संग्रह करता जाता है और मन में यह आशा रखता है कि मेरे पुत्रादि इसका उपभोग करें। अतः पुत्रादि के निमित्त द्रव्यसंग्रह करके स्वयं उसका उपभोग किये बिना ही रोगोत्पत्ति के कारण परलोक का रास्ता ले लेता है। इसके लिए मम्मण सेठ का दृष्टान्त सर्वथा उपयुक्त है । करोड़ों की सम्पत्ति होते हुए भी मम्मण सेठ उसका उपभोग न कर सका । जो प्राणी उपार्जित धन का उपभोग करते हैं उनकी भी हृदय में यह भावना रहती है कि "मैं कम से कम उपभोग में खर्च करके शेष अपने पुत्रादि के निमित्त छोड़ जाऊँ ? क्योंकि वे अपनी परम्परा के लिये अधिक से अधिक धन छोड़ जाने की अभिलाषा रखते हैं इसीलिए अधिक से अधिक धन सम्पादन करने के लिए भी वे विशेष विशेष पापाचारों में प्रवृत्त होते हैं। परन्तु वे मूढ़ और मोहान्ध प्राणी यह नहीं सोचते कि उनका पुत्रादि को वारसे में दिया हुआ धन भी पुत्रादिकों के पुण्य शेष होने पर ही टिक सकेगा, अन्यथा नहीं ? अरे ! जो धन आँखों के सामने ही नष्ट होता हुआ देखा जाता है वह भविष्य में परम्परा तक टिक सकेगा, यह कैसे निश्चय माना जा सकता है ! और यदि पुत्रादिकों के पास पुण्यबल है तो वे अपने पुण्यबल के द्वारा ही सब साधन प्राप्त कर लेंगे, तेरे दिये हुए धन की उन्हें क्या आवश्यकता ? इतना होते हुए भी प्राणी अपनी भ्रममूलक मान्यता के कारण परिग्रह बढ़ाता ही जाता है। आखिर धन का संग्रह करते करते वेदनीय के उदय से उसके शरीर में भयंकर रोग उत्पन्न होते हैं और सारा धन यहीं छोड़कर खाली हाथ जाना पड़ता है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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