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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ] [१७ शब्दार्थ-जेहिं वा सद्धि-जिनके साथ । संवसइ बह रहता है । ते चेबा-अथवा। णं-वाक्यालंकार । एगया कभी । णियगा=कुटुम्बीजन । तं-उसको । पुश्वि-पहिले । पोसेंति= पालते हैं । सो वा अथवा वह । ते णियगे अपने कुटुम्बियों को । पच्छा बाद में । पोसेजा पालन करता है । ते चे कुटुम्बी । तव ताणाए वा तेरी रक्षा करने में । सरणाए वा-तुझे शरण देने में । नालं-समर्थ नहीं है । तुमंपि-तू भी। तेसिं-उन स्वजनों के । नालं ताणाए वा सरखाए वा-रक्षण और शरण में समर्थ नहीं हैं। भावार्थ-वह बड़ी २ आकांक्षा वाला पुरुष अपने मनोरथों को पूर्ण करने के लिए बड़ी २ हिंसक प्रवृत्तियां और बड़े २ धन्धे करता है परन्तु सतत प्रयत्न करने पर भी लाभान्तराय के कारण अर्थ की प्राप्ति नहीं होने से दूसरों को पालन करने के बजाय वह जिन के साथ रहता है उन कुटुम्बियों को उसका पालन-पोषण करना पड़ता है और कदाचित् अर्थ प्राप्ति हो जाय और वह उससे बाद में अपने स्वजनों का पालन-पोषण करे तो भी इससे क्या ? क्योंकि वे कुटुम्बी उसकी रक्षा करने और उसे शरण देने में समर्थ नहीं हैं और वह भी उस कुटुम्ब के लिये त्राण और शरण भूत नहीं हो सकता है । विवेचन-कुटुम्ब के ऋण के बहाने, बाल-बच्चों के भरण पोषण के बहाने यह जीव अपने मोह का कैसा पोषण करता है यह उपरोक्त सूत्र में बता गया है । “बाल बच्चों का पालन करना, अपने कुटुम्बियों का भरण पोषण करना यह हमारा कर्त्तव्य है" ऐसा कहकर कितने ही प्राणी कर्त्तव्य के नाम पर अपने मोह का और स्वार्थ का पोषण करते हैं। अगर वस्तुतः सम्बन्ध, कर्तव्य सम्बन्ध है तो उसमें अनीति, छल, दम्भ, ठगाई, बेभान नफाखोरी हिंसा, झूठ आदि दुर्गुणों की कोई आवश्यकता नहीं रहती है और न्याय पूर्वक संयमी जीवन निर्वाह हो सकता है परन्तु प्राणियों का कर्त्तव्य सम्बन्ध तो नाम मात्र का है, है वास्तव में वह मोह सम्बन्ध । इसी मोह सम्बन्ध के खातिर प्राणी को अनीति, छल, चोरी आदि पापाचार करने पड़ते हैं । "मैं अपने कुटुम्बियों को अधिक से अधिक आराम पहुंचाऊंगा, मैं उनका पालन पोषण करूंगा” इस प्रकार वह प्राणी अभिमान पूर्वक विविध सावद्य प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है परन्तु सतत प्रयत्न के बावजूद भी अन्तराय कर्म के उदय से उसे अर्थ प्राप्ति नहीं होती हैं और वह जो दूसरों को पालने का अभिमान रखता था वह स्वयं लाचार होकर अपने सम्बन्धियों द्वारा पाला-पोसा जाता है अथवा उसने कदाचित् अर्थ प्राप्त भी कर लिया और उसके द्वारा वह कुटुम्बियों का पालन-पोषण भी करता रहे तो भी इससे क्या ? क्योंकि अाखिर तो न वे कुटुम्बी उसकी दुःखों से रक्षा कर सकते हैं और न उसे निर्भय कर शरण दे सकते हैं। इसी प्रकार वह प्राणी भी न तो कुटुम्ब की रक्षा करने में समर्थ होता है, न उन्हें शरण देने योग्य होता है। सम्बन्धियों की अशरणता बताकर आगे यह प्रतिपादन करते हैं कि अनेकों कठों द्वारा उपार्जित धन-वैभव भी त्राण और शरणरूप नहीं है। उवाइयसेसेण वा संनिहिसंनिचयो किजइ, इहमेगेसिं असंजयाण भोयणाए, तत्रों से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पजति । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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