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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
शब्दार्थ--जे=जो । इह जीविए - इस असंयमित जीवन में । पमत्ता - प्रमादी बने हैं
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अकडं करिष्यामि = जो किसी ने नहीं किया वह करूंगा । ति मरणमाणे = ऐसा मानकर । से = वह हंता - प्राणियों को मारने वाला । छेत्ता = अवयव छेदने वाला । भेत्ता = फोड़ने वाला । लुम्पित्ता = गांठ काटकर लूटने वाला । विलुम्पित्ता- लूट-खसोट करने वाला । उद्दवेत्ता = मार डालने वाला । उत्तासइत्ता = त्रास पहुंचाने वाला होता है ।
भावार्थ – जो यौवन और वय की चंचलता नहीं जानते हैं वे प्राणी असंयमित जीवन गाफिल बने रहते हैं और किसी ने नहीं किया वह मैं करूँगा।" इस प्रकार सब से ऊँचे कहलाने के लिए कई त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करते हैं, कईयों के अवयवों का छेदन - भेदन करते हैं, कईयों की लक्ष्मी लूटते हैं, कहीं पर लूट-खसोट मचाते हैं, कईयों को प्राण रहित करते हैं और अ प्राणियों को त्रास पहुँचाते हैं ।
विवेचन—यहाँ सूत्रकार ने पापारम्भ करने वाले के मन में रही हुई गहरी से गहरी मनोभावना का चित्र खींचा है। प्राणी मोहसम्बन्ध में अन्धा होकर हमेशा नाना प्रकार की कल्पनाओं के संसार में सैर करता है, हवाई किले बाँधता है, आसमान में फूल देखता है, कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाता है, आज यह करूँगा, कल वह करूँगा, अरे ! जो काम अब तक संसार में किसी ने नहीं किया वह मैं करूँगा, इस प्रकार आकांक्षाओं के मोहक भ्रम जाल में पड़ा असंयमित जीवन व्यतीत करता है । वह अपने मनोरथोंअरमानों को पूरा करने के लिए हिंसा करता है, झूठ बोलता है, कमजोरों को लूटता है, उनकी लक्ष्मी को लेता है, दूसरे प्राणियों के प्राणों की कोई कीमत नहीं समझता है । वह अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के अधिकारों और हितों को नष्ट नाबूद करता है और संसार में लूट-खसोट करता है। "मैं सबसे बड़ा धनवान बनूँ, सबसे अधिक शक्तिशाली बनूँ, मैं सबसे बड़ा सम्राट् बनूँ, सारी दुनियां मेरी आज्ञा माने, मैं सब पर हुकूमत करूं" ऐसी ऐसी महत्त्वाकांक्षाएँ प्राणियों को भयंकर पापाचार में प्रवृत्त करती हैं। इन आकांक्षाओं में अन्धा बना हुआ प्राणी मानव से दानव बन जाता है, राक्षसीय साधनों द्वारा दुनियां पर सितम गुजारता है, दुःखों की वर्षा करता है, मानव को मानव नहीं समझता है और भयंकर नरसंहार करता है | ऐसे प्राणी के मन की गहराई में छिपी हुई आकांक्षा ही सर्व पापों की जननी बनती है । अतः आकांक्षा का, कीर्तिलालसा का और आसक्ति का त्याग करने का भगवान् ने उपदेश फरमाया है ।
जेहिं वा सद्धिं संवसह ते वाणं एगया नियगा तं पुव्विं पोसेन्ति, सो वा ते णियगे पच्छा पोसिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा तुमपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा ।
संस्कृतच्छाया --- यर्वा सार्द्ध संवसति ते वैकदा निजकाः तं पूर्वं पोषयन्ति, स वा तान्निकान् पश्चात् पोषयेत् । नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा ।
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