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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ] [ ३ पश्चात् परिवदेत् । नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा स न हास्याय, न क्रीडायै, न रत्यै, न विभूषायै । शब्दार्थ-एगया=किसी समय (वृद्धावस्था में)। जेहिं वा=जिनके साथ । संवसति= वह रहता है । ते वि णं वे भी। णियगा-कुटुम्बीजन। पुव्वं पहिले पाले-पोषे हुए। परिव्वयन्ति= निंदा करते हैं । सो वा वह वृद्ध भी । ते णियगे-उन कुटम्बियों की। पच्छाबाद में। परिवएजा-निंदा करता है। तेचे कुटम्बी । तव तेरे। ताणाए वा रक्षा करने के लिए। सरणाए वा अथवा शरण देने के लिए । नालं समर्थ नहीं हैं। तुमं पि-तुम भी। तेसिं-उन कुटुम्बियों के लिए । नालं ताणाए वा सरणाए वा-रक्षा और शरण रूप नहीं हो। से वह वृद्ध पुरुष । ण हासाए न तो हास्य.के योग्य है । ण रतीए न आनन्द के योग्य है । ण विभूसाए न शृङ्गार के योग्य रहता है। भावार्थ-वह वृद्धावस्था प्राप्त व्यक्ति जिनके साथ रहता है, उसके वे कुटुम्बी-जिनको उसने पहिले पाल-पोस कर बड़े किये हैं-उसकी निंदा और अवगणना करते हैं । अथवा वह वृद्ध उन कुटुंबियों की निन्दा करने लग जाता है । सारांश कह है कि हे जीव ! वह कुटुम्ब तुझे दुःख से बचाने और शरण देने में समर्थ नहीं है और इसी प्रकार तू भी उनको बचाने और आश्रय देने में समथ नहीं है। वृद्धावस्था में यह जीव हास्य, क्रीडा, मौज़शौक और श्रृंगार के लायक भी नहीं रहता है । विवेचन- इस सूत्र में सूत्रकार वृद्धावस्था में होने वाले पराभव (तिरस्कार ) का वर्णन करते हैं। प्राणी जिन स्वजनों में आसक्त होकर उनके खानपान, अलंकार, वस्त्र और मकान आदि की व्यवस्था करने के लिए, अपने पुत्रादि के लिये सम्पत्ति छोड़ जाने के लिये अनेक प्रकार के छलप्रपंच करता है और सभी प्रकार के पापकर्म करते हुए नहीं शरमाता है वेही उसके स्वजन उसके वृद्ध होने पर उसका तिरस्कार करते हैं, उसकी उपेक्षा करते हैं और घृणा करते हैं तथा यहाँ तक कहते हुए सुने जाते हैं कि यह मरता भी नहीं है । वृद्ध भी जब देखता है कि जिनके लिए मैंने इतना कष्ट उठाया वे भी मेरी सेवा नहीं करते हैं तब वह उन कुटुम्बियों के अनेकों दोष प्रकट करता हुआ उनकी निन्दा करता है। वह बुढ़ापा ऐसा अभिशाप रूप है कि जो पहिले अपनी आज्ञा में चलते थे वे ही उसके पुत्र-भार्यादि अब उसके वचनों की अव. हेलना करने लग जाते हैं । वृद्धावस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है कि गात्रं संकुचितं गतिविगलिता दन्ताश्च नाशं गताः । ____ दृष्टिभ्रंश्यति .रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते ॥ वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते । धिक्कष्टं जरयाभिभूतपुरुषं पुत्रोप्यवज्ञायते ॥ बुढापे में शरीर में झुर्रियां पड़ जाती हैं, चाल लथड़ाती हैं, दांत गिर जाते हैं, दृष्टि नष्ट हो जाती है, रूप कुरूप हो जाता है, मुख से लार टपकने लगती है, स्वजन भी आज्ञा नहीं मानते हैं, पत्नी भी सेवा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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