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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६४ ] [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम् नहीं करती है, पुत्र भी अवज्ञा करता है । आह ! इस बुढ़ापे के कष्ट का भी क्या पार है । धिक्कार है इस जराग्रसित शरीर को । ऐसी दुर्दशा होने पर भी आशा के जाल में पड़ा हुआ प्राणी कष्टमय जीवन जीता है - लेकिन तृष्णा का त्याग नहीं करता है। श्री शंकराचार्य ने कहा है गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डं । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डं ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थात् -- अंग शिथिल हो जाते हैं, काले बाल सफेद हो जाते हैं, मुँह पोपला हो जाता है, चलने की शक्ति न रहने से लकड़ी पकड़नी पड़ती है तो भी तृष्णा कैसी बलवती है कि सर्वथा असमर्थ वृद्ध भी उसका त्याग नहीं कर सकता है । सारांश यह है कि यह प्राणी रागभाव में पड़कर कुटुम्बियों के लिये पापकर्म करता है परन्तु वे कुटुम्बी उसकी रक्षा करने में और उसको शरण देने में समर्थ नहीं हैं। इसी तरह प्राणी भी कुटुम्बियों की रक्षा करने और उन्हें शरण देने में समर्थ नहीं है । यही प्राणियों की अनाथता है। रोग उत्पन्न होने पर, बुढ़ापा आने पर और मृत्यु आने पर कोई कुटुम्बी बचाने में या शरण देने में समर्थ नहीं हो सकता । अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म ही शरण और त्राण रूप हैं। जन्म, जरा और मरण के दुख से बचाने के लिये जिनप्ररूपित धर्म के सिवाय अन्य कोई त्राण और शरण भूत नहीं है । वृद्धावस्था में प्राणी का शरीर ऐसा जर्जरित हो जाता है कि उस अवस्था में हँसना भी उसके लिये हास्यास्पद हो जाता है । वह स्वयं हँसी का साधन बन जाता है। इस अवस्था में न क्रीडा करने की शक्ति रहती है, न आनन्द का उपभोग हो सकता है, न इस अवस्था में विभूषण शोभा यह है कि- हैं। तात्पर्य जं जं करेइ तं तं न सोहए जोव्वणे अतिक्कते । पुरिसस्स महिलियाई व एक्कं धम्मं पमुत्ताणं ॥ वृद्ध प्राणी धर्म के सिवाय जो जो क्रियाएँ करता है वे उसे शोभा नहीं देती हैं । अर्थात् वृद्ध पुरुष और स्त्री की कोई भी क्रिया - यौवन चले जाने से शोभा नहीं देती है। अतः यह दुखद अवस्था न आवे उसके पहले ही धर्माचरण के प्रति सावधान होना चाहिये । इच्चेवं समुट्ठिए होविहाराए प्रन्तरं च खलु इमं संपेहाए धीरे मुहुतमवि णो पमाय । वो अचेति जोव्वणं च । संस्कृतच्छाया—–इत्येवं समुत्थितः श्रहो विहाराय, अन्तरं च खलु इदं संप्रेक्ष्य धीरो मुहूर्त्तमवि नो प्रमाद्येत्, वयः श्रत्येति यौवनञ्च । शब्दार्थ — इच्चेवं इस प्रकार | अहोविहाराए संयम के लिए । समुट्ठिए उद्यत होकर । इमं श्रन्तरं = इस अवसर को | संपेहाए = विचार कर | धीरे-धीर पुरुष | मुमुत्तमवि - मुहूर्तमात्र का भी । यो पमायए = प्रमाद न करे | वो = अवस्था | अञ्चेति = बीतती है । जोव्वणं च = यौवन भी । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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