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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२] [आचाराग-सूत्रम् अर्थात्-दण्ड, चाबुक, शस्त्र, रस्सी, अग्नि, पानी में डूबना, विष, सर्प, शीत, उष्ण, अरति, भय, भूख, प्यास, व्याधि, टट्टी-पेशाब का निरोध, भोजन की विषमता, पीसना, घोटना, पीड़ा देना, (दबाना) आदि आयु को बीच में तोड़ने वाले उपक्रम है । वैसे तो इधर उधर, ऊपर, नीचे, चारों तरफ पद पद पर आपत्तियाँ खड़ी हैं न जाने कब इस दुर्बल मानव-जीवन का अन्त हो जाय । यह आयु वायु के समान चंचल है। यह जानकर इसके एक क्षण का भी दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। परन्तु भोले प्राणी अपने आपको अजर-अमर मानकर मरणपर्यन्त प्रपंचों में फंसे रहकर ही इस अमूल्य जीवन से हाथ धो वैठते हैं । इस पंचमकाल में तो प्रायः मनुष्यों की आयु सौ वर्ष के लगभग समझी जाती है। इस आयु का लगभग आधा भाग तो निद्रा में व्यतीत होता है। बहुत-सा बचपन का भाग खेलकूद में व्यतीत हो जाता है। जवानी यौवन की उन्मत्तता तथा विषयोपभोग में पूरी हो जाती है । वृद्धावस्था में इन्द्रियों की शक्ति कम पड़ जाती है । शरीर लाचार हो जाता है अतः यह सारा अनमोल मानव जन्म अकारथ ही पूरा हो जाता है । हन्त ! कितना अफसोस !! दुर्लभ चिन्तामणि का यह दुरुपयोग !!! बहुत से लोगों का ऐसा अभिप्राय देखा जाता है कि धर्माराधन का समय वृद्धावस्था है । परन्तु यह बात तो तब मानी जा सकती जब कि आयु का बराबर निश्चय हो जाता । हम प्रतिपल मृत्यु के वश में पड़े हुए प्राणी कैसे अपने आयुष्य का भरोसा कर धर्म को बुढ़ापे के लिए ताक में रख दें ? वस्तुतः धर्माराधन का समय यौवनावस्था है । वृद्धावस्था आने पर यौवन का जोश और उमंग नष्ट हो जाते हैं, शरीर का हाल बेहाल हो जाता है, शरीर परतंत्र हो जाता है, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है, तब क्या धर्म का आराधन हो सकेगा ? धर्माराधन करने के लिए जो उमंग और शक्ति चाहिये वह तो यौवन वय में ही है अतः उसी अवस्था में आत्मकल्याण के लिए कटिबद्ध होना चाहिये। जिसने यौवनावस्था उन्माद, मस्ती एवं विषयोपभोग में व्यतीत कर दी है उसने अपना सारा जीवन नष्ट कर डाला है। वह यौवनोन्मत्त प्राणी जब वयःपरिणाम से वृद्ध बनता है तब वह अपने हीन और क्षीण बने हुए शरीर को मृत्यु द्वारा घिरा हुआ देखकर किं कर्त्तव्य विमूढ़ हो जाता है, वह भान भूल जाता है, उसे कुछ नहीं सूझता है और पश्चात्ताप करता है कि हाय मैंने यौवन वय में धर्माराधन नहीं किया ! मैं प्रपंचों में फंसा रहा ! इस पश्चात्ताप के सिवाय और कोई उसे आश्वासन देने वाला नहीं होता है। अतः साधक का कर्तव्य है कि वह इस मानव जन्म के एक एक क्षण को बहुमूल्य समझ कर उसका सदुपयोग करे ताकि पीछे पछताना न पड़े। जिन कुटुम्बीजनों के राग में फंसकर, और जिस द्रव्य के लोभ से प्राणी अकृत्यों में प्रवृति करता है, वे कुटुम्बी और वह प्यारा धन मृत्यु के समय में शरणरूप नहीं हैं सो बताते हैं: जेहिं वा सद्धिं संवसति तेविणं एगया णियगा पुव्वं परिवयंति । सो वा ते णियगे पच्छा परिवएजा । नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा । से ण हासाए, ण कीडाए, ण रतीए, ण विभूसाए॥ संस्कृतच्छाया-यैर्वा सार्द्र संवसति तेऽपि एकदा निजका: पूर्व परिवदन्ति । स वा तानिजकान् For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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