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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन प्रथम उद्देशक ] हीयमाणेहिं, रसणपरिणाणेहिं परिहीयमाणेहि, फासपरिणाण्णोहिं परिहीयमाणेहिं, अभिकंतं च खलु वयं संपेहाए तत्रो से एगया मूढभावं जणयति । - संस्कृतच्छाया-अल्पञ्च खल्वायुरिहेकेषां मानवानाम्, तद्यथा-श्रोत्रपरिज्ञानैः परिहीयमानः, चतुःपरिज्ञानैः परिहीयमानैः, प्राणपरिज्ञानैः परिहीयमानैः, रसनपरिज्ञानैः परिहीयमानैः, स्पर्शनपरिज्ञान: परिहीयमानैः, अभिक्रान्तञ्च खलु क्यः संप्रेक्ष्य, ततः स एकदा मूढभावं जनयति । शब्दार्थ-अप्पं अल्प । च अधिकार्थ । खलु-निश्चयार्थ । आउयं आयुष्य । इह= मनुष्य भव में । एगेसि माणवाणं किन्हीं मनुष्यों का। तंजहा इस प्रकार | सोयपरिगणाणेहि श्रोत्रेन्द्रिय का ज्ञान । परिहीयमाणेहि कम हो जाने से। चक्खुपरिणाणेहिं परिहीयमाणेहि= चक्षु का ज्ञान कम हो जाने से । घाणपरि० नाक का ज्ञान घट जाने से। रसणपरि०=जिव्हा का ज्ञान कम पड़ जाने से । फासपरि० स्पर्श ज्ञान घट जाने से । अभिकतंजरा और मृत्यु से घिरी हुई । वयं-अवस्था को। संपेहाए-देखकर । तो तव । से वह प्राणी । एगया वृद्ध अवस्था में । मूढभावं-दिग्मूढता को । जनयति पैदा करता है। भावार्थ-इस संसार में मनुष्यों का आयुष्य बहुत थोड़ा है इसमें भी वृद्धावस्था के कारण कान, अांख, नाक, जीभ और स्पर्शनेन्द्रिय का ज्ञान दिन-प्रतिदिन कम होता जाता है। तब ऐसी आयी हुई वृद्धावस्था को देखकर प्राणी किंकर्तव्यविमूढ ( दिग्मूढ ) हो जाता है । विवेचन-मनुष्यों की आयुस्थिति अत्यल्प होने से उसके एक-एक क्षण की अनमोलता और उपयोगिता है । जो वस्तु अल्प होती है तो उसका मूल्य भी अधिक होता है जैसे रत्नादि । इसी तरह श्रायुस्थिति कम होने से मानव-जीवन का क्षण क्षण अनमोल है परन्तु विषयासक्त प्राणी इस दुर्लभ तत्त्व के महत्त्व को नहीं जानता हुआ उसका विषयोपभोग में दुरुपयोग करता है। वह चिंतामणि रत्न को कौएं को उड़ाने के लिए फेंक देता है । आगम में मनुष्य की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूते प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की कही है। यह स्थिति वैसे ही अत्यल्प है । उसमें भी सामान्य मनुष्यों का आयुष्य सोपक्रम (कारणों से बीच में दूटने वाला ) होता है । आयुष्य बन्ध के समय का अन्तर्महूर्त प्रमाण काल निरूपक्रम आयु का होता है। शेष समस्त आयु निमित्त कारणों के कारण मध्य में टूट जाती है। आयु के उपक्रमों की सामान्य गणना निम्न दो गाथाओं में की गई है दंड-कस-सत्थ-रज्जू अग्गी-उदग-पडणं विसं बाला । सीउएहं अरइ भयं खुहा पिवासा य वाही य ॥१॥ मुत्तपुरीसनिरोहे जिएणाजिरणे य भोयणे बहुसो । घसण-घोलण-पीलण पाउस्स उवक्कमा एते ॥२॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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