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राम-सूत्रम्
तसंति पाणा पदिसो दिसासु य । तत्थ तत्थ पुढो पास, पाउरा परिताति, संति पाणा पुढो सिया (४६)
संस्कृतच्छाया-त्रस्यन्ति प्राणिनः प्रदिशः दिक्षु च, तत्र तत्र पृथक् पश्य पातुराः परितापयन्ति, सन्ति प्राणिनः पृथक् श्रिताः ।
शब्दार्थ-पाणा आणी। पदिसो विदिशाओं में। दिसासु य-दिशाओं में। तसंति-उद्वेग पाते हैं । तत्थ तत्थ पुढो भिन्न भिन्न कारणों से । पास हे शिष्य ! देख। पाउरा= आसक्त प्राणी । परिताति-पीड़ा देते हैं । पाणा आणी । पुढो-भिन्न भिन्न । सिया पृथ्वी आदि के आश्रित । संति हैं।
भावार्थ-प्राणी दिशा और विदिशा में रहे हुए सर्वत्र त्रास पाते हैं, क्योंकि हे शिप्य! तू देख कि विषय-कषायादि से आतुर बने हुए प्राणी' अपने भिन्न २ स्वार्थों के कारण उन प्रसादि जीवों को विविध प्रकार से पीड़ा पहुंचाते हैं। ये त्रसादि प्राणी पृथ्वी आदि के आश्रित सर्वत्र रहे हुए हैं अतः प्रत्येक आरम्भ से उन्हें पीड़ा पहुंचती है।
विवेचन-इस सूत्र में यह बताया गया है कि दिशा विदिशा और संसार के प्रत्येक कोने में प्रसादि जीव रहे हुए हैं। उनमें से प्रत्येक प्राणी अपने रक्षण के लिए भरसक प्रयत्न करता है । कोशिकार कीड़ा सभी दिशा और विदिशाओं से डर कर आत्म-रक्षण के लिए अपने शरीर को चारों तरफ से तन्तुओं से लपेटा हुआ रखता है तदपि बेचारा त्रास पाता है और मारा जाता है क्योंकि विषय कषायों से आतुर हुआ प्राणी स्वार्थ के कुटिल माया जाल में फंसकर एक दूसरे प्राणी की हिंसा के लिये प्रयत्न करता हुश्री अपने लिये सर्वत्र भय का भूत खड़ा कर लेता है और अपने ही खड़े किये हुए भय के भूत से स्वयं डरता है । स्वार्थ के झंझावात में फंसा हुआ प्राणी दिशा-विदिशा और संसार के कोने कोने को भय रूप बना देता है और इसी कारण सर्वत्र रहे हुए त्रसादि प्राणियों को उद्वेग पहुंचाता है। इसी लिए कहा है कि संसार के सुरक्षित से सुरक्षित स्थान पर रहे हुए, दिशा-विदिशा और भावदिशा में रहे हुए प्राणी सदा एक दूसरे से सशंकित होते हुए उद्वेग और मरण भय का अनुभव करते हैं । यहाँ अभय की महिमा प्रतीत होती है। जो दूसरों को अभय कर देता है वस्तुतः वही स्वयं निर्भय हो जाता है।
__ लजमाणा पुढो पास, अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहि सत्येहिं त्रसकायसमारंभेणं त्रसकायसत्थं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति (५०)
संस्कृतच्छाया–लजमानान्पृथक् पश्य, अनगाराः स्म इत्येके प्रवदन्तः यदिदं विरूपरूपैः रात्रैः त्रसकायसमारम्भेण त्रसकायशस्त्रं समारममाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनः हिनस्ति ।
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