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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir • प्रथम अध्ययन षष्ठ उद्देशक ] विवेचन-यहाँ त्रस जीवों के आठ प्रकार के जन्म कहे गये हैं। अन्यत्र तीन जन्म भी कहे गये हैं । तत्वार्थसूत्र में “सम्मूर्छनगर्भोपपाता जन्म' इस सूत्र से तीन प्रकार के जन्म कहे गये हैं। इसका कारण यह है कि आठ प्रकार के जन्म उत्तर भेद की अपेक्षा से हैं । मूल भेद की अपेक्षा तीन जन्म हैं। रसया, संसेयमा, उब्भिया इन तीन का समावेश संमूर्छन जन्म में हो जाता है । अण्डज, पोतज, और जरायुज का समावेश, गर्भज जन्म में हो जाता है। देव और नारकी उपपात जन्म वाले होने से उपपात जन्म में गर्भित हो जाते हैं। अतः तीन जन्म मूल भेद की अपेक्षा से हैं और आठ जन्म उत्तर भेद की विवक्षा से हैं। यहां उत्तर भेदों का ग्रहण किया गया है। निज्माइत्ता, पडिलेहिता, पत्तेयं परिनिब्वाणं सब्वेसि पाणाणं, सव्वेसि भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, सव्वेसि सत्ताणं, अस्सायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ति बेमि (४०) संस्कृतच्छाया—निर्ध्याय प्रत्युपेक्ष्य प्रत्येकं परिनिर्वाणं सर्वेषां प्राणिनां सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जावानां सर्वेषां सत्वानाम्, असातम् अपरिनिर्वाणम् महाभयं दुःखमिति ब्रवीमि । शब्दार्थ-निझाइत्ता विचार करके । पडिलेहिता देखकर । पत्तेयं प्रत्येक प्राणी को । परिनिव्वाणं सुख प्रिय है । सव्वेसि पाणाणं सभी विकलेन्द्रियों को । सव्वेसि भूयाणं सभी वनस्पति को । सव्वेसि जीवाणं सभी पंचेन्द्रिय जीवों को । सव्वैसि सत्ताणं सभी एकेंद्रिय प्राणियों को । दुक्खम्-दुख । अस्सायं असातारूप । अपरिनिव्वाणं-दुख देने वाला । महन्मयं= परम भय रूप है । ति बेमि-ऐसा कहता हूं। भावार्थ हे जम्बू ! अत्यन्त मनोमन्थन ( विचार ) करने के बाद तथा सारी वस्तुस्थिति का अवलोकन करने के पश्चात् तुझे यह कहता हूँ कि सभी, बेइन्द्रियादि प्राणी, वनस्पति आदि सभी भूत, पंचेन्द्रियादि जीव तथा एकेन्द्रियादि सत्व सुख के ही अभिलाषी हैं। असाता किसी को प्रिय नहीं है । दुःख सदा शरीर और मन को पीड़ा करता है अतः सभी प्राणी दुख को महा भयरूप मानते हैं। विवेचन-संसार के समस्त प्राणियों की भिन्न भिन्न विवक्षा से ४ प्रकार की संज्ञा है। जैसे कहा है:-"प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवा पंचेन्द्रियाः प्रोक्ताः शेषाः सत्वा उदीरिता" प्राण, भूत, जीव और सत्व ये चारों यद्यपि समानार्थक हैं तदपि व्युत्पत्ति के भेद को मानने वाले समभि रूढ नय की अपेक्षा चारों का भेद प्रकट किया गया है । तात्पर्य यह है कि संसार के छोटे से छोटे प्राणी से लेकर महान से महान प्राणी भी सुख प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करता है। सब सुख की प्राशा से ही प्रवृति करते हैं परन्तु अज्ञानादि हेतु से सुख की जगह दुख प्राप्त हो जाय तो बात ही दूसरी है। इससे फलित होता है कि सुख सभी को प्रिय है और दुख सभी को भयरूप है। अतः “अात्मवत् सर्वभूतेषु' का व्यवहार करना ही कल्याण रूप है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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