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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्ययन षष्ठ उद्देशक ] [ ७७ भावार्थ - अन्यथा बोलने वाले और अन्यथा करने वाले शाक्यादि भिक्षु सावद्य अनुष्ठान से शरमाते हुए कहते तो हैं कि हम अनगार हैं परन्तु ऐसा कहते हुए इस सकाय के विविध प्रकार के शस्त्रों से सकाय का आरम्भ करते हुए अन्य अनेक प्राणियों की भी साथ ही साथ हिंसा करते हैं । तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स, परिचंद माणणपूयणाए, जाइमरण मोयणाए, दुक्खपडिघायहेडं, से सयमेव तसकाय सत्यं समारंभति, अण्णेहिं वा तसकायसत्यं समारंभावे. अण्णे वा तसकायसत्थं समारभमाणे समणुजाइ तं से अहियाए, तं से श्रवोहिए (५१) संस्कृतच्छाया[ तत्र खलु भगवता परिक्षा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थं जातिमरणमोचनार्थं दुःखप्रतिघात हेतु सः स्वयमेव त्रसकायशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा श्रसकायशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान्वा त्रसकायशस्त्रं समारभमाणान्समनुजानीते तत्तस्याहिताय, तत्तस्याबोधिलाभाय । भावार्थ-यहां सकाय के विषय में भगवान् ने अच्छी तरह विवेक समझाया है कि इस जीवन को टिकाने के लिए, प्रशंसा, मान और पूजा के लिए, जन्म मरण से छूटने के लिए (धर्म निमित्त) और दुःखों से छुटकारा पाने के लिए यह प्राणी सकाय का आरम्भ करता है, अन्य से कराता है और करते हुए को अच्छा समझता है किन्तु उसका यह आरम्भ उसके लिए अहित और अज्ञान रूप होता है। विवेचन पूर्ववत् । से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय, सोचा भगवत्र, अणगाराणं वातिए इहमेगेसिं णायं भवति - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु रिए । इच्चत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं तसकायसमारंभेणं, तसकायसत्थं समारंभमाणे रणे श्रणेगरूवे पाणे विहिंस (४४) संस्कृतच्छाया- - स तत्सम्बुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय, श्रुत्वा भगवतोऽनगाराणां वाऽऽन्तिके इहैकेषां ज्ञातं भवति । एष खलु ग्रन्थः, एष खलु मोहः, एष खलु मारः, एष खलु नरकः । इत्येवमर्थे गृद्धो लोकः यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः त्रसकाय समारम्भेण त्रसकायशस्त्रं समारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनः हिनस्ति । भावार्थ - हिंसाको हित और अज्ञानकर्त्री समझकर, सर्वज्ञ और श्रमणजनों से ग्राह्य ज्ञानादि ग्रहण करने पर एक २ को ज्ञात हो जाता है कि वह हिंसा आठ कर्मों की गांठ है, यह मोह का कारण है, यह मृत्यु का हेतु है और नरक में ले जाने वाली है । तदपि खान-पान और विषयादि में मूर्छित हुए प्राणी इस त्रसकाय का अनेक प्रकार के शस्त्रों से समारम्भ करते हुए अन्य अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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