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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रथम अध्ययन पंचमोद्देशक ] [ ७३ जमीन में गाड़े हुए धन की रक्षा के लिए अपनी शाखाएं फैलाते हैं, वर्षा काल के मेघ के स्वर से तथा शिशिर ऋतु के वायु से अंकुर उत्पन्न होते हैं तथा अशोक वृक्ष के पल्लव और फूल तभी उत्पन्न होते हैं जब कामदेव के संसर्ग से स्खलित गति वाली, चपल नेत्र वाली, सोलह शृंगार सजी हुई युवती अपने नूपुर से शब्दायमान सुकोमल चरण से उसका स्पर्श करती है। वकुल वृक्ष सुगन्धित मद के कुल्ले से सिंचन करने से विकसित होता है। विकसित लजवन्ती हाथ के स्पर्श मात्र से संकुचित हो जाती है। ये सभी क्रियाएँ ज्ञान के विना सम्भव नहीं हो सकती अतः वनस्पति में चेतना सिद्ध होती है । सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र बोस ने सारे वैज्ञानिक संसार को वनस्पति में चेतनता मानने के लिए बाध्य कर दिया है। उन्होंने अपने वैज्ञानिक साधनों द्वारा यह साक्षात् प्रत्यक्ष करा दिया है कि वनस्पति में क्रोध, प्रसन्नता, हास्य, राग, आदि भाव पाये जाते हैं। उनकी तारीफ करने से वे हास्य प्रकट करती, और गाली देने व निन्दा करने से क्रोध करती हुई दिखाई दी हैं । अतः इस वैज्ञानिक युग वनस्पति की सचेतनता के लिए अधिक कहना व्यर्थ है । सें Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir एत्थ सत्यं समारभमाणस्स इचेते प्रारंभा अपरिणाया भवन्ति । एत्थ सत्यं समारभमाणस्स इच्चेते श्रारम्भा परिण्णाया भवंति । तं परिण्णाय मेहावी व सयं वस्सइत्थं समारंभेज्जा, वरणेहिं वणस्सइसत्थं समारंभावेज्जा, व वणस्सइसत्यं समारंभंते समणुजाणेज्जा । जस्सेते वणस्सइसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि (४६) संस्कृतच्छाया(अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्मा: अपरिज्ञाताः भवन्ति । अत्र शखमः-समारभमाणस्य इत्येते प्रारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । तत्परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वनस्पतितखं समारभेत, नैवान्यैर्वनस्पतिशास्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यान् बनस्पतिशखं समारम्भाखान् समनुजानीयात् । यस्यैते वनस्पतिरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मेति भवामि । भावार्थ - इस वनस्पतिकाय का जो समारंभ करते हैं उन्हें आरम्भ का भान भी नहीं होता अतः उन्हें पाप लगता है । जो वनस्पतिकाय का आरंभ नहीं करते हैं उन्हें आरम्भ का विवेक होता हैअतः पाप नहीं लगता है । यह जानकर बुद्धिमान् वनस्पति का स्वयं समारम्भ न करे, दूसरों से न करावे और करते हुए अन्य को अनुमोदन न दे । जिसने वनस्पतिकाय के समारंभ को जानकर त्याग दिया है वही परिज्ञा (विवेक) सम्पन्न मुनि है । ऐसा मैं भगवान् से श्रवण कर तुझे कहता हूँ । I DSSSSSSSSW इति पञ्चमोद्देशकः កងកមមាច ម For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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