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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७२] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् शब्दार्थ से बेमि मैं कहता हूँ । इमंपि अपना शरीर भी। जाइधम्मयं उत्पन्न होता है । एयपि यह वनस्पति भी । जाइधम्मयं उत्पन्न होती है । इमंपि बुढिधम्मयं अपना शरीर बढ़ता है। एयपि वुढिधम्मयं वनस्पति भी बढ़ती है । इमंपि चित्तमंतयं अपने शरीर में चैतन्य है । एयपि चित्तमंतयं वनस्पति में भी चैतन्य है । इमंपि छिन्नं मिलाति=अपना शरीर छेदने से कुम्हलाता है । एयंपि छिन्नं मिलाति-वनस्पति भी छेदने से कुम्हलाती है । इमंपि आहारगं= अपने शरीर को आहार चाहिये । एयपि आहारगं वनस्पति को भी आहार चाहिये । इमंपि अणिश्चियं अपना शरीर अनित्य है । एकोपि अणिच्चियं यह वनस्पति भी अनित्य है । इमंपि असासयं अपना शरीर अशाश्वत है । एयंपि असासयं-यह भी अशाश्वत है । इमंपि चोव--- चइयं अपना शरीर घटता बढ़ता है । एयपि चोवचइयं यह भी घटती बढ़ती है । इमंपि विपरिणामधम्मयां-यह शरीर अनेक विकारों को प्राप्त करता है । एयपि विपरिणामधम्मयं यह वनस्पति भी विकार प्राप्त करती है। भावार्थ-वनस्पति की सचेतनता बताने के लिए मनुष्य शरीर के साथ उसकी तुलना करते हैंजसे मानव शरीर उत्पन्न होने का स्वभाव वाला है, वैसे ही वनस्पति भी उत्पन्न होने का स्वभाव वाली है, अपना शरीर बढ़ता है वैसे ही यह भी बढ़ती है, जैसे अपने शरीर में चेतन है वैसे ही इसमें भी चेतन है जैसे यह शरीर काटने छेदने से कुम्हलाता है वैसे वनस्पति भी काटने छेदने से म्लान होती है, जैसे शरीर को आहार की आवश्यकता पड़ती है वैसे ही वनस्पति को भी आहार आवश्यक है। जैसे यह शरीर अनित्य है वैसे यह भी अनित्य है, अपना शरीर अशाश्वत है यह भी अशाश्वत है जैसे अपना शरीर घटता बढ़ता है वैसे ही इसमें भी हानि वृद्धि होती है। जैसे अपने शरीर में विकार होते हैं वैसे इसमें भी विकार होते हैं । अतः अपने शरीर के समान वनस्पति भी सचेतन है । विवेचन-वनस्पति की सचेतनता बताने के लिए मनुष्य शरीर के साथ उसकी तुलना करते हुए श्राचार्य फरमाते हैं कि जैसे यह मनुष्य शरीर बाल, कुमार, युवा, वृद्धता आदि परिणामों वाला होता हुवा चेतन वाला देखा जाता है वैसे ही यह वनस्पति भी सचेतन है क्योंकि उत्पन्न हुआ केतकी का वृक्ष बालक, युवा और वृद्ध परिणाम वाला है अतः उभयत्र जातिधर्म समान होने से दोनों की सचेतनता सिद्ध होती है। यह शंका की जा सकती है कि नख केश आदि भी उत्पन्न होते हैं परन्तु वे सचेतन नहीं हैं अतः जातिधर्मत्व हेतु सदोष (व्यभिचारी ) है-यह कथन योग्य नहीं है क्योंकि उसमें मनुष्य शरीर प्रसिद्ध बाल-कुमार-युवा-वृद्धादि परिणाम नहीं पाये जाते हैं। दूसरी बात केश नखादि जो उत्पन्न हुए कहे जाते हैं वे चेतना वाले शरीर की अपेक्षा से कहे जाते हैं। स्वतन्त्र नरवकेशादि उत्पत्ति धर्म वाले नहीं हैं अत: उक्त हेतु निर्दोष है । अथवा उक्त सूत्र में बताये हुए समुच्चय लक्षण एक हेतु रूप हैं । केशादि में उपर बताये सभी लक्षण नहीं पाये जाते हैं अतएव हेतु समग्र दोष रहित है । जैसे यह मनुष्य शरीर सचेतन है येसे ही वनस्पति भी सचित्त है अर्थात् जैसे मनुष्य शरीर ज्ञान संयुक्त है वैसे वनस्पति का भी शरीर ज्ञान संयुक्त है क्योंकि, धात्री, प्रपुन्नाट ( लजवन्ती ) श्रादि वृक्षों में सोना और जागना पाया जाता है, अपने नीचे For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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