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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्ययन पंचमोद्देशकः ] [७१ प्राणी स्वयं वनस्पति शस्त्र का प्रारम्भ करता है, अन्य से करवाता है और करते हुए अन्य को अनुमोदन देता है । यह हिंसा उसके अकल्याण के लिए और अज्ञान (मिथ्यात्व) के लिए होती है अर्थात् यह हिंसा अकल्याण और मिथ्यात्व का कारण होती है । से तं संबुज्झमाणे प्रायाणीयं समुद्राय, सोचा भगवत्रो, अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति- एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए । इचत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं, वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ (४४) संस्कृतच्छाया-स तत् सम्बुध्यमानः श्रादानीय समुत्थाय, श्रुत्वा भगवतोऽनगाराणां वाऽऽन्तिके इहैकेषां ज्ञातं भवति । एष खल ग्रन्थः, एष खलु मोहः, एष खलु मारः, एष खलु नरकः । इत्येवमर्थ गृद्धो लोकः यदिम विरूपरूपैः शस्त्रैः वनस्पतिकर्मसमारम्भेण वनस्पतिशस्त्र समारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनः हिनस्ति। भावार्थ---हिंसा को अकल्याणकारी जानकर, सर्वज्ञ और श्रमणों के पास से श्रवण करने पर किन्हीं को यह ज्ञात हो जाता है कि यह हिंसा पाठकर्मों की गांट रूप है, यह मोह और मृत्यु का कारण है और दुर्गति में ले जाने वाली है । तो भी खान-पान और कीर्ति के लोभ में मूर्छित हुआ यह प्राणी विविध प्रकार के शस्त्रों द्वारा वनस्पतिकर्म का आरम्म करता हुआ वनस्पति की हिंसा करता है और साथ ही अन्य दूसरे त्रसादि प्राणियों की भी विराधना करता है। से बेमि इमंपि जाइधम्मयं, एयपि जाइधम्मयं, इमंपि बुढिधम्मयं, एरोपि वुड्ढिधम्मयं, इमंपि चित्तमंतगं, एयपि चित्तमंतगं, इमंपि छिन्नं मिलाति, एरोपि छिन्नं मिलाति, इमंपि अाहारगं, एरोपि पाहारगं, इमंपि अणिचयं, एपि अणिञ्चयं, इमपि प्रसासगं, एरोपि प्रसासयं, इमंपि चोवचइगं, एयंपि चोवचइयं, इमंपि विपरिणामधम्मगं, एयपि विपरिणामधम्मयं (४५) संस्कृतछाया-तद् ब्रवीमि इदमपि जातिधर्मकम्, एतदपि जातिधर्मकम्, इदमपि वृद्धिधर्मकम्, एतदपि वृद्धिधर्मकम्, इदमपि चित्तवत् एतदपि चित्तवत्, इदमपि छिन्नं म्लायति, एतदपि छिनं म्लायति, इदमप्याहारकमेतदप्याहारकं, इदमप्यनित्यमेतदप्यनित्यम्, इदमप्यशाश्वतमेतदप्यशाश्वतम्, इदमपि चपापचयिकमेतदपि चयापचायकं इदमपि विपरिणामधर्मकमेतदपि विपरिणामधर्मकम् । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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