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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [आचाराङ्ग-सूत्रम् ही संसार है । जो विषयों में संयम नहीं रखता है वह वीतराग की आज्ञा से बाहर है । विषयों में तृप्ति तो है ही नहीं अतः वह बार-बार विषयों में इच्छा रखता हुआ कुटिलता का आचरण करता है और प्रमादी बनकर संयम से दूर होता हुआ गृहस्थाश्रमी बन जाता है । ( साधु का द्रव्यलिंग होते हुए भी असंयमानुष्ठान से वह गृहस्थ ही है । ) विवेचन-विषयों से विरक्त होना यही वीतरागता की साधना का प्रथम अंग है । जहाँ आसक्ति है वहाँ जड़ता है और चैतन्य का ह्रास है-यही संसार की वृद्धि का कारण है। सूत्रकार ने बताया है कि इन्द्रियों के विषय श्रासक्ति उत्पन्न करते हैं और आसक्ति से जड़ता और जड़ता से संसार होता है। यो विषय संसार के कारण हैं यह सिद्ध हुआ। लजमाणा पुढो पास, अणगारा मो त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति (४२) संस्कृतच्छाया--लज्जमानान्पृथक् पश्य, अनगाराः स्म इत्येके प्रवदन्तः यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रैः वनस्पतिकर्मसमारम्भेण वनस्पतिशयं समारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनः हिनस्ति । भावार्थ- हे शिप्य ! सावद्य अनुष्ठान से शरमाते हुए कितने ही अन्यतीर्थी साधु कहते हैं कि हम अनगार हैं, परन्तु उनका यह अभिमान वृथा है क्योंकि वे अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा वनस्पति कर्म का समारम्भ करके वनस्पति के जीवों की हिंसा करते हैं और उसके आश्रित रहे हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा भी करते हैं। _तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिया, इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदणमाणाणपूयणाए, जाइमरणमोयणाए, दुक्खपडिघायहेडं, से सयमेव वणस्सतिसत्थं समारंभइ अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सइसत्थं समारभमाणे समणुजाणाति, तं से अहियाए, तं से अबोहिए (४३) संस्कृतच्छाया-तत्र खल भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातहेतु स स्वयमेव वनस्पतिशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान्वा वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान्समनुजानीते, तत्तस्याहिताय, तत्तस्याबोधिलाभाय । भावार्थ-इस वनस्पतिकाय के लिए भगवान् ने परिज्ञा समझायी है। इस जीवन के लिए प्रशंसा, मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण से छूटने के लिए (धर्मनिमित्त), दुःखों के निवारण के लिए For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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