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प्रथम अध्ययन पंचमोद्देशकः ]
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यह बात वनस्पति के प्रकरण में कही गयी है अतः यह बताना आवश्यक है कि वनस्पति किस प्रकार इन्द्रियविषयों का विषय बनती है-सुन्दर स्वर के साधन बांसुरी, वीणा, पटह आदि की उत्पत्ति प्रायः वनस्पति से ही है। रूप में लकड़ी की सुन्दर नयनाभिराम पुतलियाँ, तोरण, वेदिका, स्तम्भ इत्यादि
आँखों को सुन्दर लगते हैं इनकी उत्पत्ति भी वनस्पति से है। गन्ध में-कपूर, लविंग, केतकी, चन्दन, अगर, केशर आदि की सुगन्धि घ्राणेन्द्रिय को प्रसन्न करती है । रस में-मृणाल, मुलायम, सुकोमल वस्त्र, मुलायम गादी-तकिये ये सभी स्पर्शनेन्द्रिय को सुख देते हैं। इन सभी की उत्पत्ति वनस्पति से है। तात्पर्य यह कि वनस्पति से उत्पन्न शब्दादि गुणों में जो आसक्त है वह संसार में वर्तमान है, जो संसार में वर्तमान है वह रागद्वेष से युक्त होने से इन्द्रिय विषयों में वर्तमान है। आगे के सूत्र में स्वयं सूत्रकार मूळ को संसार कहते हैं:
उड्ढं अहं तिरियं पाइणं पासमाणे रूवाइं पासइ, सुणमाणे सदाई सुणइ, उड्ढे अहं तिरियं पाइणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, सद्देसु यावि । एस लोए वियाहिए। एत्थ अगुत्ते अणाणाए पुणो पुणो गुणासाते बंकसमायारे पमत्ते श्रगारमावसे (४१)
___ संस्कृतच्छाया-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् प्राचीनम् पश्यन् रूपाणि पश्यति, शृण्वन् शब्दान् श्रृणोति । अर्ध्वमधस्तिर्यक् प्राचीनम् मूर्छन रूपेषु मूर्छति, शब्देषु चापि । एष लोको व्याख्यातः । अत्रागुप्तः अनाज्ञायां, पुनः पुनः गुणास्वादो वक्रसमाचारः प्रमत्तोऽगारमावसति ।
शब्दार्थ-उड्ढे-ऊर्ध्व दिशा में। अहं अधोदिशा में। तिरियं-ति दिशा में । पाइणं-पूर्वादिदिशा में । पासमाणे-देखता हुआ जीव । रूवाइं-रूप । पासइ-देखता है । सुण= माणे-सुनता हुआ । सद्दाई सुणइ शब्द सुनता है । उड्ढं-ऊर्ध्व दिशा में । अहं अधोदिशा में। तिरियं-तिरछी दिशा में । पाइणं-पूर्व दिशा में । मुच्छमाणे आसक्त होता हुआ । रुवेसु मुच्छति रूप में आसक्त होता है। सद्देसु यावि-शब्दों में भी आसक्त होता है। एस-यह आसक्ति । लोए वियाहिए संसार कही जाती है । एत्थ इन शब्दादि विषयों में । अगुत्ते अगुप्त (राग-द्वेष करने वाला) अणाणाए भगवान् की आज्ञा में नहीं है । पुणो पुणो बार बार । गुणासाए= विषयों की इच्छा करता है। वंकसमायारे-कुटिलता का आचरण करता है। पमत्ते=विषय मूर्छित । अगारमावसे-गृहस्थवास में रहता है।
भावार्थ-हे जम्बू ! यह जीव, ऊर्ध्व. अधो, तिरछी और पूर्वादि दिशाओं में अनेक पदार्थों के सम्पर्क में आता हुआ विविध रूप देखता है, सुनता हुआ विविध शब्द सुनता है और ऊर्ध्वादि दिशाओं में देखी हुई रूपवाली वस्तुओं में और मनोज्ञ शब्दों में मर्चित बनता है-आसक्त होता है । यह आसक्ति
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