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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कह देने से भी वही बोध होता है ही न घोषित कर दिया गया हो । www.kobatirth.org रुधिर वैकारिकी रूपरे जब तक कि अन्य श्वेतकायाणुओं का स्पष्ट नाम १. पूयन । ३. दुष्ट या मारात्मक रोग ५. गम्भीरशस्त्रकर्मोत्तरकालीन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बकरियों का सितकोशोत्कर्ष उनकी स्वाभाविक मर्यादा के ऊपर १२ से ४० हजार तक प्रति घन मिलीमीटर की वृद्धि माना जाता है । यह वृद्धि प्रतिशत में ७५% से ९५% तक पहुँचती है । प्रकृतावस्था में यह सितकोशोत्कर्ष गर्भावस्था की पूर्णता के समय में स्त्री को तथा जन्म लेते हुए शिशु को मिलता है । भोजनोपरान्त साधारण पुरुषों में भी कुछ सितकोशोत्कर्ष होता हुआ देखा जा सकता है । प्रसवकालीन वेदना के समय से प्रसूतिकाल तक स्त्री को सितकोशोत्कर्ष मिल सकता है । निम्न विकृतावस्थाओं में यह सितकोशोत्कर्ष मिल सकता है : -- २. तीव्रविशिष्टज्वरावस्थाएं । ४. गम्भीर रक्तस्रावोत्तरकालीन । पूरान ( suppuration ) के कारण हुआ सितकोशोत्कर्ष रोगी के बल तथा रोग की गम्भीरता पर निर्भर करता है । छोटा विक्षत सितकोशोत्कर्षोत्पादक नहीं हो सकता । कभी-कभी जब उपसर्ग अतीव गम्भीर हो और मृत्यु समीप ही हो तो ऐसी अवस्था में सितकोशोत्कर्ष न होकर सितकोशापकर्ष ( leucopenia ) ही दृष्टिगोचर हुआ करता है । जिन रोगियों में रोगप्रतीकारिता शक्ति की वृद्धि रहती है और उपसर्ग भी थोड़ा दमदार होता है तो उस समय निस्सन्देह सितकोशोत्कर्ष हुआ करता है | कई बार रक्तपरीक्षण पर सितकोशोत्कर्ष की प्राप्ति हो तो समझ लेना चाहिए कि शरीर में कहीं न कहीं प्रयोत्पत्ति हो गई है और वही इसका कारण है । आन्त्रिकज्वर, विषाणुजन्य उपसर्ग, राजयक्ष्मा, श्वग्रह ( कुकुर खाँसी ), ( uudulant fever ) इन रोगों को छोड़कर शेष सभी विशिष्ट तीव्र ज्वरों में सितकोशोत्कर्ष पाया जाता है । मारात्मक रोगों में से उनमें जिनमें व्रणन होता है तथा उपसर्ग का इतिहास मिलता है थोड़ा बहुत सितकोशोत्कर्ष मिल जाता है । गम्भीर रक्तस्राव तथा गम्भीर शस्त्रकर्मों के उपरान्त सितकोशोत्कर्ष होने पर कुछ काल बाद रक्तचित्र स्वाभाविक हो जाया करता है । कभी-कभी जब किसी रोग के सम्बन्ध में ग्रन्थोक्त कारण पूर्णतया देखने में नहीं आते तब रक्तचित्र देखने पर सितकोशोत्कर्ष की उपस्थिति किसी जीर्ण या तीव्र पूयन ( sepsis ) की स्थिति की ओर इङ्गित करती है । फुफ्फुस खण्डों के बीच में कभी-कभी प्रयोत्पत्ति हो जाती है । उसका कोई अन्य लक्षण भी नहीं मिलता तथा उसके ज्ञान का एक मात्र साधन यह सितकोशोत्कर्ष ही होता है । ९०% से ऊपर सितकोशोत्कर्ष का अर्थ उण्डुकपुच्छ में हुए पूयन की ओर इङ्गित है ! For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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