SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 973
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८४ विकृतिविज्ञान उदरच्छदकलापाक तथा उण्डकपुच्छ का विदीर्ण होना आदि भी इसी से ज्ञात होते हैं। ऐसी अवस्था में तुरत शस्त्रकर्म करने से बढ़ कर अन्य उपाय शल्यविद् नहीं देखता । ८०% लक्षण इतनी गम्भीरता की ओर इङ्गित नहीं करता और रोगी पर दृष्टि रखने और स्थिति का अवलोकन करते रहने को आवश्यकता रहती है। जब सितकोशोत्कर्ष सीमा पार करने लगता है तो बह्वाकारियों में मधुजन (ग्लेकोजन) के कण उत्पन्न हो जाते हैं। उनके साथ अपूर्ण कोशा भी रक्तचित्र में मिल जाते हैं जिनमें पूर्वसितकोशा, मज्जकोशा आदि होते हैं । जीर्ण रोगों में तथा जहाँ बह्वाकारियों का उत्कर्ष किसी कारण से नहीं हो पाता वहाँ लसकायाणूत्कर्ष मिला करता है। जहाँ ५ प्रतिशत से अधिक उषसिप्रिय रक्त में पाये जाते हैं वहाँ उपसिप्रियोत्कर्ष (इओसीनोफिलिया) या उषसिप्रिय सितकोशोत्कर्ष मिल सकता है। यह सदैव अनुर्जा (अली) की अवस्थाओं में, उदर में कृमि होने पर तथा कुछ स्वचा के रोगों में बहुधा मिलता है । ये उपसिप्रिय कोशा रक्त के अतिरिक्त उतियों में भी मिल सकते हैं। मलेरिया और ट्रिपानोसोमियासिस आदि परजीवी जीवाणुओं से होने वाले रोगों में एक कायाणूत्कर्ष देखा जाता है । शीतला, अन्य विषाणुजन्य उपसर्गों, आन्त्रिक ज्वर तथा ग्रन्थिकज्वर होने पर यह बहुधा मिलता है। सितकोशापकर्ष-सितकोशाओं की विशेष करके बह्वाकारियों की संख्या में कमी आ जाने की अवस्था को सितकोशापकर्ष कहा जाता है। आन्त्रिकज्वर (मोतीझरा) में यह लक्षण विशेष करके इसलिए मिलता है कि आन्त्रिक ज्वर का विष अस्थिमज्जा में बह्वाकारी निर्माण करने वाले उसके पूर्वज कोशाओं को ही यह नष्ट कर देता है। यचमा में, विषाणुजन्य उपसर्गों में, अकणकायाणकर्षीय अवस्थाओं में तथा मारात्मक एवं अचयिक रक्तक्षयों में सितकोशापकर्ष देखा जाता है । __ अकणकायाणूत्कर्ष (agranulocytosis )-इसे अकणकोशीय मुखपाक (agranulocytic angina ) भी कहते हैं । यह रोग जितना आधुनिक चिकित्सा के पुत्र रूप में प्रकट हुआ है उतना अन्य नहीं। इस रोग में कणात्मक ( granular ) सितकोशाओं का विनाश होने लगता है। कभी कभी तो मज्जा में उनके पूर्वज बनते हैं पर उनका विभजन कणात्मक सितकोशाओं में नहीं हो पाता । कहीं मज्जा में पूर्वजों के निर्माण में भी बाधा पड़ जाती है जिसके कारण मज्जा मज्जकायाणुओं ( myelocytes ) से रहित हो जाती है और रक्त बह्वाकारियों से विहीन हो जाता है। अँगरेजी ओषधियों के प्रति अतिहषता ( hypersenesitiveness) इस रोग की उत्पत्ति में बहुधा मूल कारण का काम करती है । रक्तचित्र देखने पर रक्त में सितकोशाओं की संख्या हजारों में न होकर सैकड़ों में रह जाती है। इनमें भी कणात्मक ( बह्वाकारी) कोशाओं पर विशेष प्रभाव पड़ा करता है। लसीय सितकोशाओं पर उतना प्रभाव नहीं होता तथा रक्त के बिम्बाणु इस व्याधि में बढ़ते हुए ही देखे जाते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy