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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८२ विकृतिविज्ञान इनकी न्यष्टियाँ आरम्भ में वृक्काकारी होती हैं जो फिर घोड़े के बाल के समान हो जाती हैं। स्वस्थावस्था में ५० से ६५% ये न्यूट्रोफिल मिलते हैं। १ से ४% उपसिप्रिय तथा ३ से १% क्षारप्रिय मिलते हैं। सकलगण ३ से ७ हजार प्र० घ० मि. मी. होता है। दूसरा वर्ग सितकोशाओं का लसकायाणुओं का होता है। यह न केवल अस्थिमज्जा के शोणकोशरुह से ही बनते हैं अपि तु शरीरस्थ सम्पूर्ण लसधातु से कहीं भी इनकी उत्पत्ति सम्भव है। प्लीहा, थायमस, तुण्डिकेरी तथा आन्त्र के पेयरीय सिध्मों से इनका निर्माण विशेषरूप से हुआ करता है। पहले जालकान्तश्छदीय संस्थान में लसरुह (lymphoblast) का निर्माण होता है। उससे पूर्व लसीकोशा ( prelymphocyte ) बनते हैं, उनसे बृहल्लसीकोशा ( large lymphocytes ) बनते हैं उन्हीं से परिपक्क लसीकोशा तैयार होते हैं। बड़े लसीकोशा १३ म्यू के तथा छोटे १० म्यू आकार के होते हैं। छोटे १५ से २५% तक और बड़े ५ से १०% तक पाये जाते हैं। शिशुओं एवं बालकों में बृहलसीकोशा लघुलसीकोशाओं की अपेक्षा अधिक मिलते हैं। बृहल्लसीकोशा लघुल० को० से नये होते हैं। इन लसीकोशाओं का जीवन १२ से २० घण्टों तक चलता है । स्वस्थावस्था में सकलगणन संख्या २००० से ३००० प्रति घन मिलीमीटर तक हो सकती है। ___ शोणकायरहों से प्ररसरुह ( plasmoblast ) बनकर उनसे पूर्व प्ररसकोशा बनते हैं जो अन्त में प्ररसकोशाओं में बदल जाते हैं। जो संयोजी ऊतियों में भी पाये जाते हैं तथा जिनका वर्णन स्थान-स्थान पर इस ग्रन्थ में होता आया है। सितकायाणुओं का तीसरा वर्ग एककणकोशाओं ( monocytes ) का बनता है। ये भी जालकीय कोशाओं से बनते हैं। अंशतः प्लीहा से और अंशतः अस्थिमज्जा से इनका निर्माण होता है । शोणकायरहों से पहले एकरुह बनते हैं जिनसे पूर्वेककायाणु ( premonocyte ) बनते हैं जो अन्त में एककायाणुओं में परिणत हो जाते हैं । ये ५०० प्रतिघन मि० मीटर की संख्या में प्रायः मिलते हैं। सितकोशोत्कर्ष-स्वस्थावस्था में एक पुरुष के रक्त में ५००० से १०००० प्रति घनमिलीमीटर के हिसाब से सितकायाणु रहा करते हैं और औसत ७५००-८००० का जाता है । यह संख्या स्वास्थ्य की दशा पर निर्भर करती है और जैसे ही कोई रोग होता है तो संख्या में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। सितकायाणुओं की संख्या में वृद्धि का कारण विकृति और प्रकृति दोनों ही हो सकते हैं। किस प्रकार के कोशाओं की वृद्धि हुई है इसका ज्ञान भी सदैव आवश्यक रहता है। सितकायाणूत्कर्ष या सितको. शोत्कर्ष शब्द का प्रयोग करने के साथ ही कौन श्वेतकण अधिक संख्या में बढ़ा है इसका भी ध्यान रखना होता है। जैसे बहुन्यष्टि सितकोशोत्कर्ष कहने से श्वेतकायाणुओं की वह संख्यावृद्धि जिसमें बह्वाकारी (polymorphonuclear cells) की वृद्धि हुई है। बह्वाकारियों की इस वृद्धि को पूरा न लिखकर सितकोशोत्कर्ष मात्र For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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