SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 967
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७८ विकृतिविज्ञान की कसौटी मानी जानी चाहिए। यदि गलत वर्ग के दाता का रक्त किसी ग्राहक को मिल भी जाता है तो वह ग्राहक रक्तावसेचन के कुछ घण्टों बाद मर जायगा अथवा मरने में कुछ दिन ले लेगा। अधिक गम्भीर रुग्णों में तीव्र तापांश, कम्प, रक्तमेह तथा आक्षेपों के साथ एक तीव्र प्रतिक्रिया तुरन्त उत्पन्न हो जाती है। वृक्कों में विक्षत बन जाते हैं तथा मूत्र का घात भी हो जा सकता है। ऐसी अवस्था में मृत्यु का एकमात्र कारण मूत्र विषमयता (यूरी मिया) हुआ करता है । साधारण प्रतिक्रिया होने पर ज्वर के साथ थोड़ा कम्प आता है और मारक रूप नहीं बनता। एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिए । रक्तावसेचन में रक्ताणु और लस के वर्गीकरण के अतिरिक्त यह भी देखना चाहिए के दाता फिरंग या विषमज्वर से पीडित न हो अन्यथा ग्राहक को ये रोग आसानी से प्राप्त जावेंगे । अतः दाता के रक्त का फिरंगदृष्टया वासरमेन प्रतिक्रिया परीक्षण करा लेना चाहिए। आधुनिक काल में रक्त का सञ्चय रक्त बैंकों (रक्ताधिकोषों) द्वारा करने की प्रथा चल पड़ी है। इस प्रथा के कारण नई नई समस्याएँ और उनको नया नया समाधान आवश्यक हो गया है। ज्यों ज्यों मानव मस्तिष्क प्रकृति के निरीक्षण में अपनी सूक्ष्म बुद्धि का उपयोग करता जाता है, उसे नये नये दृश्य मिलते चले जाते हैं। प्रकृत रक्त के प्रतिजनीय गुणों ( antigenic properties of normal blood ) की खोजबीन तब से बराबर जारी हुई है जब से रक्तावसेचन निमित्त रक्त का संग्रह कार्य चालू हआ है। ए प्रसमूहिजन जैसा कि पहले विचार था एक प्रतिजन (antigen ) नहीं है बल्कि इसमें कई उपवर्ग भी शामिल हैं। ये उपवर्ग ग्राहक के लस के साथ पूरा पूरा कभी कभी मेल नहीं भी खाते और चिन्ताजनक स्थिति कर दे सकते हैं। एक तत्व हीसस फैक्टर करके प्रसिद्ध है । रक्त के नवयुगीय अध्ययन को उसके बिना अधूरा समझा जाता है। हीसस जाति के वानरों के रक्त में इस प्रतिजन की उपस्थिति प्रथम ज्ञात हुई थी। उसी से इसका यह नाम विख्यात हुआ है । इसे हकारक (Rh-factor ) भी कहते हैं। यह कारक ८५% मानवों में उपस्थित रहता है। केवल १५% इसके बिना होते हैं। इस १५ प्रतिशत मानवता को ग्राहक मान कर रक्तावसेचन कराया जावे तथा ओ, ए, बी, ए-बी वर्ग सम्मेलन का पूरा ध्यान रखा जावे तब भी गम्भीर अवस्था उत्पन्न हो सकती है। ८५% मानव तो ह-अस्त्यात्मक ( Rh-positive ) माने जाते हैं तथा १५% ह-नास्यात्मक ( rh-negative) कहे जाते हैं । इन ह-नारत्यात्मक प्राणियों को यदि ह-अस्त्यात्मक प्राणियों के रक्त का अवसेचन करा दिया गया तो ह्र-विरोधी-प्रसमूहि ग्राहक के रक्त में बनने लगेगी और यदि ह -अस्त्यात्मक रक्त का प्रवेश पुनः कर दिया गया तो हानिकारक लक्षण अवश्य उपस्थित हो जायेंगे। एक स्थिति रुधिररहोत्कर्षभ्रौणीय ( erythroblastosis foetalis ) कही जाती है जिसमें भ्रूण या गर्भ मृत जन्म लेता है या जन्म के कुछ कालोपरान्त उसके For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy