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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रतिकाय ( प्रस मूहियाँ तथा शोणांशियाँ ) रुधिर वैकारिकी ८७ह रक्त में तीव्र शोणांशीय रक्तक्षय की उत्पत्ति हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप वह मर जाता है । इस स्थिति का आधुनिक कारण यह ह-कारक ही माना गया है । इस स्थिति का यह नाम इसलिए डाला गया है क्योंकि बालक के रक्त में रुधिररुहों की अधिकता देखी गई है जो रक्तोत्पादक संस्थान की अतिद्रुत क्रियाशीलता की परिचायिका है । इस स्थिति की उत्पत्ति का रोचक इतिहास है। भ्रूण -ह-अस्त्यात्मक हुआ और माता ह- नास्त्यात्मक हुई तो भ्रूण के रक्त का ह-कारक अपरा में माता के रक्त में मिलकर - प्रतिजन तैयार करता है । प्रतिजन से माता के रक्त में प्रतिकायोत्पत्ति ( antibody formation ) होकर वह उनके साथ पुनः भ्रूण रक्त में पहुँचता है जिससे भ्रूण के रक्त में शोणांशन होने लगता है । और मृत शिशु के जन्म पिता ह्र + www.kobatirth.org भ्रूण ह्र + Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ( रुधिराणु प्रतिजन ) माता ह - 1 का कारण बनता है । क्योंकि यह प्रतिजन केशालों की प्राचीरों को नष्ट कर देती हैं। जिससे बालक सर्वांगशोथ ( hydrops foetalis) से पीडित हो जाता है । यदि जिन्दा पैदा हुआ तो उसे सर्वांग में कामला होता है तथा शोणांशिक रक्तक्षय पर्याप्त मिलता है । जिसे नवशिशु का गम्भीर कामला ( icterus gravis neona torum ) कहा जाता है । यदि इन बालकों को तुरत ह- नास्त्यात्मक रक्तावसेचन करा दिया जावे तो शोणांशन रुक जा सकता है और शिशु की प्राणरक्षा की जा सकती है परन्तु यह बहुधा देखा गया है कि ये बालक आगे चलकर पूर्ण विकसित नहीं हो पाते । मन्दबुद्धि, हतभाग्य, दुर्भग, श्लथ, रुग्णरूप में ही वे रहा करते हैं । बुद्धि विकास में ह - कारक की उपयोगिता का परीक्षण यान्नेट तथा लीबरमेन ने किया है। इस ह - कारक के विरोध के परिणामस्वरूप ही बहुधा मन्दबुद्धि बालकों की उत्पत्ति होती है ऐसा उन्होंने सिद्ध किया है । माता और शिशु इन दोनों का बुद्धिविकास की दृष्टि से क्या सम्बन्ध में है इसके लिए एक नवीन मार्ग खुल जाता है पर यह ह-कारक भी एक पदार्थ नहीं है । इसमें भी ७ घटक सम्मिलित बतलाये जाते हैं। आगे के विद्वान् जब इनकी खोजकर इनके गुणों का अध्ययन करेंगे तो अनेक नये तथ्य बुद्धिविकृति के सम्बन्ध में प्रकट होंगे ।
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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