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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ८११ युक्त न्यष्टि रहती है । इसका कायारस अल्प रहता है यहाँ तक कि यदि अभिरंजन के लिए प्रयुक्त पदार्थ अल्प प्रमाण में प्रयोग किये गये तो वह बिल्कुल भी प्रकट नहीं हो पाता । इस कारण कोशा न्यष्टि मात्र के दिखने से गोल दिखाई देते हैं। पर यह सदैव स्मरण रखना होगा कि अस्थिजनकसंकट के कोशा कभी गोल हो नहीं सकते। दूसरा रूप वह है जिसमें कोशा बड़े और ताकारी होते हैं अथवा बहुभुजीय (polyhedral ) होते हैं । इन कोशाओं में सूत्रिभाजना खूब मिलती है। तीसरे रूप में महाकोशा (giant cells) पाये जाते हैं । ये या तो अर्बुद के ही कोशा होते हैं या बाह्य द्रव्य (foreign body ) के द्वारा उत्पन्न महाकोशा होते हैं। अबंदीय महाकोशाओं में एक न्यष्टीयता होती है अथवा कभी कभी थोड़ी संख्या में बड़ी बड़ी न्यष्टियाँ मिलती हैं। बाह्यद्रव्य महाकोशाओं की अपेक्षा इन कोशाओं की आकृति अधिक विषम, असाधारण और अर्बुदिक ( neoplastic) होती है । बाह्यद्रव्य महाकोशा अस्थिजनक संकट का खोजकारी (exploratory ) शस्त्रकर्म होने के उपरान्त अथवा जब अस्थि का बहुत अधिक विनाश हो चुका है तब मिलते हैं। कोशाओं की भाँति अन्तर्कोशीय पदार्थ ( intercellular substance ) भी बहुत महत्त्व रखता है। यह काचर या तान्तव, कास्थीय या श्लिषीय, अस्थ्याभ (osteoid ) या अस्थीय ( osseous ) होता है । इस प्रकार भवुदिक अस्थि की उत्पत्ति होने लगती है। यह अर्बुदिक अस्थि असाधारण और कमजोर होती है। यह अवंद के संधार के साथ चिपक जाती है और अस्थिरहों की किनारे की पंक्ति इसमें नहीं मिलती। शोणितजारलि (हीमैटोजायलीन) द्वारा रंगने से चूर्णातु अपने असित नीलवर्ण में प्रकट होती है। जब अर्बुद में तान्तव ऊति का आधिक्य होता है तब यह जरठप्रकारीय संकट (sclerosing sarcoma) बनता है तथा जब उसमें रक्तवाहिनियों की अधिकता होती है तब यह अग्रसिराविस्फारी ( telangiectotic ) प्रकार का कहलाता है। तनुप्राचीरी सिराओं या वाहिनियों का आक्रमण होने से अर्बुदकोशाओं द्वारा वस्तुतः स्रोतों की प्राचीरें बना करती हैं । इसलिए जिस भाग में यह अर्बुद हो उस अंग को बहुत सावधानी से बरतना चाहिए। यह सम्भव है कि शस्त्रकर्म के ही अवसर पर विस्थायोत्पत्ति हो जावे। इसे रोकने के लिए यदि पहले से ही उस पर क्ष-रश्मि द्वारा विकिरण करके वाहिनियों को बन्द कर दिया जावे तो यह भय बहुत कुछ दूर हो जाता है। ___ अस्थिजनक संकटाबंद का प्रसार मुख्यतया रक्तधारा के द्वारा ही होता है । यही वास्तविक भी हो सकता है क्योंकि यह रक्तवाहिनियों का आगार रहता है और तनुप्राचीरी वाहिनियों की प्राचीरें कोशाओं के लिए सरलतया श्रेष्ठ होती हैं जिनसे हो कर रक्तधारा कभी भी दूषित कर दी जा सकती है। इसके द्वारा विस्थाय सबसे पहले फुफ्फुसों में बनते हैं पर यदि अर्बुदिक अन्तःशल्य फौफ्फुसिक कोशाओं को पार करने में समर्थ हो जाते हैं तो अन्य अंगों में भी विस्थाय बन सकते हैं। यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि अन्य अस्थियों में इसके उत्तरजात विस्थाय देखने में बहुत ही कम आते हैं। जब कई अस्थियों में अर्बुद बनें तो वह संकटाबंद न होकर ईविंग का अर्बद बालकों For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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