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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१० विकृतिविज्ञान ___ यह एक स्थूल अर्बुद होता है । यह अस्थि के दण्ड ( shaft of a bone ) को नष्ट करके वैकारिकीय अस्थिभन्न ( pathological fracture) का कारण बनता है । अस्थि का निर्माण बहुत करके नहीं हो पाता । यह अस्थिदण्ड के भीतर मजकीय गुहा की ओर बढ़ता है तथा बाहर की ओर पर्यस्थ में बढ़ कर मृदु भागों तक आक्रमण करता है। पर्यस्थ को आक्रान्त करके तथा उसे नष्ट भ्रष्ट करके यह पेशियों और मांसधराकला को विदारता हुआ त्वचा तक आ जाता है और एक व्रण बना देता है।। पर्यस्थ पर अधिक दबाव पड़ने से सर्वप्रथम इस रोग में शूल उत्पन्न होता है जो अस्थिर्यों के ऊपरी भाग में रहता है। यह अर्बुदोत्पत्ति से पूर्व सप्ताहों अथवा महीनों रह सकता है। जब अर्बुद पूर्ण प्रगल्भावस्था में आ जाता है तो उसका पुंज अस्थि के सिरे पर तर्कुरूप ( fusiform ) हो जाता है जो अस्थिदण्ड की ओर घटता जाता है। इसके स्वरूप को ब्वायड ने अविमांसल पाद (a leg of mutton) कह कर पुकारा है । आरम्भ में रोग अस्थि से सम्बद्ध होता है तब अस्थिदण्ड, पर्यस्थ तथा अस्थि के मजकीय भाग तक ही उसका सम्बन्ध आता है। आगे चलकर पर्यस्थ को छोड़ कर अर्बुद मृदु भागों को आक्रान्त करता है। इस रोग में अस्थि का शोषण और निर्माण दोनों एक साथ देखे जाते हैं जिसके कारण मूल अस्थिदण्ड तो विलीन हो जाता है परन्तु उपपर्यस्थ भाग में अस्थिजनक अर्बुदकोशाओं के द्वारा अर्बुदीय अस्थि का निर्माण होने लगता है। यह जान कर आश्चर्य हो सकता है कि साधारण महाकोशीय अर्बुद (अस्थिदलकार्बुद) में अस्थि का नाश होता है और महामारात्मक अस्थिजनकार्बुद में अस्थि का निर्माण होता है। यह अस्थिनिर्माण सिध्मिक ( patchy ) इतस्ततः ही होता है इस कारण वैकारिकीय अस्थिभग्न आगे की अवस्थाओं में बहुधा मिलता है। जैसे जैसे अस्थि के ऊपर से पर्यस्थ उटती जाती है वैसे ही वैसे अस्थि में जाने वाली रक्तवाहिनियाँ उसके समानान्तर शाखाएँ देती चली जाती हैं। ये एक समाधार ( scaffolding ) का काम देती हैं । इसी पर नई अस्थि जमती है । अस्थिशूकों को क्ष-रश्मि चित्र में देखने से सूर्य की किरणों जैसा चित्र बनता है। इस अर्बुद को गाढ़ता इसके अन्दर बनी अस्थि के अनुपात में कम या अधिक होती है। अर्बुद बहुत मृदुल और मांसल हो सकता है या दृढ और तान्तव अथवा कठिन और अस्थीय हो सकता है। इसका साधारणतः वर्ण धूसर होता है परन्तु यह अर्बुद अत्यधिक वाहिनीय होने से और रक्तस्त्रावाधिक्य के कारण रक्तपूर्ण कोष्ठक इसमें मिलते हैं। ऊतिनाश और मृद्वीयन खूब मिलता है। अण्वीक्षण करने पर यह असाधारणतया विविधरूपी (varied) पाया जाता है। इस कारण भिन्न भिन्न अस्थिजनक संकटों में बहुत अधिक अन्तर हो जाता है। एक ही अर्बुद में कई प्रकार के रूप पाये जाते हैं जैसे कि मस्तिष्क के छिद्रिष्टरुहाबंद ( spongioblastoma multiforme of the brain) में मिलते हैं। इसके कोशा सदैव अस्थिरुह होते हैं । इन अस्थिरुहों के तीन रूप देखने में आया करते हैं। पहला रूप वह है जिसमें एक तककोशा अकेला रहता है और उसके अन्दर परम वर्ण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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