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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१२ विकृतिविज्ञान में तथा बहुविध मज्जकार्बुद ( multiple myeloma ) प्रौढों में मानना चाहिए। कभी कभी लसतन्तुक भी प्रभावित हो जाते हैं पर उनमें कोई भी जो वृद्धि होती है। वह व्रणशोथात्मक ही होती है । इस रोग में स्थानिक विकार पर्याप्त रहता है और जब संकट पर्यस्थ को फोड़ देता है तो अर्बुद मृदु ऊतियों को पार करके त्वचा तक सरलता से पहुँच जाता है । इस रोग का प्राग्ज्ञान ( prognosis ) अशुभ है । शस्त्रकर्म के पाँच वर्ष पश्चात् १०० में ८० रोगी इस असार संसार को कोले तथा पूल के कथनानुसार परित्याग कर देते हैं । रोगी जितना ही अल्पायु होगा उतना ही उसका मरण इस रोग में शीघ्र सम्भव होगा । इस दृष्टि से १० वर्ष की आयु वाला बालक इस रोग से बहुत जल्दी मरता है | जब अस्थिजनक कर्कट के साथ साथ पैगटामय भी हो तो मृत्यु शीघ्र आती है । यदि मारात्मकता हलके दर्जे की हो और अर्बुद परिणाही ( peripheral ) क्षेत्र में हो तो प्राग्ज्ञान कुछ अच्छा रहा करता है । अस्थिदलकार्बुद या महाकोशीय सङ्कट ( Osteoclastoma or Giant-cell Sarcoma ) महाकोशीय संकटार्बुद, साधारण मज्जकाभ संकटार्बुद ( benign myeloid sar. coma ), या मज्जकाभ दन्तपुष्पुटक ( myeloid epulis ) आदि नामों से अस्थिदलकार्बुद पुकारा जाता है । यह अर्बुद साधारण तथा दुष्ट दोनों प्रकार का हो सकता है। रोगी जितना है अल्पायु होता है अर्बुद उतना ही साधारण रहता है तथा रोगी जितनी अधिक आर वाला होता है अर्बुद उतना ही दुष्ट या मारात्मक होता चला जाता है । अर्बुद मे महाकोशा जितने ही कम होंगे उतना ही वह अधिक दुष्ट होगा ऐसा भी कहा जात है । इसके विचित्र स्वभाव को देखकर ऐसा कहा जा सकता है कि यह अर्बुद तर्क कोशीय संधार द्वारा बनता है और ज्यों ज्यों उसके महाकोशा घटते जाते हैं त्यों त्यं अधिक मारात्मक बनता चला जाता है । यह अर्बुद वास्तव में एक अर्बु ( neoplasm ) है या कणार्बुद ( granuloma ) इसका भी अभी तक निर्ण‍ नहीं हो पाया । कणार्बुद के पक्ष में इसका औतिकीय चित्र, विस्थायोत्पत्ति का प्रायश अभाव और तन्तुकोष्ट्रीय अस्थिरोग में अर्बुदसमपुंजों का विकास आदि आते हैं । इस विस्थाय फुफ्फुस में देखे जा चुके हैं अतः इसे अर्बुद जिसका रूप कभी भ मारात्मक हो सकता है ऐसा मान लेना पड़ता है । यह अर्बुद बालकों और तरुणों में तीस वर्ष की आयु के पूर्व ही उत्पन्न होता है यह मुख्यतः लम्बी अस्थियों के सिरों पर उत्पन्न होता है । यह भी जानुसन्धि क अस्थियों में अधिक होता है वैसे यह कास्थि में बनने वाली किसी भी अस्थि पाया जा सकता है । जो अस्थियाँ कलाओं ( membranes ) में बनती हैं जै करोटि की अस्थियाँ उनमें यह रोग नहीं मिलता। इसका कारण जानने में देर नह For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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