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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण अस्थिजनक सङ्कट पर्याप्त पाया जाता है । यह अत्यधिक मारात्मक अस्थ्यर्बुद है जो साधारणतया यह दस वर्ष से तीस वर्ष तक के व्यक्तियों में पाया जाता है । पचास वर्ष की अवस्था वाले व्यक्तियों यह कदाचित् ही पाया जाता हो । यह पैरों की अस्थियों में ७० प्रतिशत और शेष में ३० प्रतिशत के अनुपात से उत्पन्न होता है । जानु सन्धि की निर्माता और्वी अस्थि का अधोभाग तथा जंघास्थि का ऊर्ध्वभाग इस सङ्कट के विशिष्ट अधिष्ठान कहे जाते हैं । लम्बी अस्थियों के सिरों पर इसकी उत्पत्ति हुआ करती है । जिन अस्थियों में यह जिस क्रम से अधिक पाया जाता है उनमें और्वी पहली, जंघास्थि दूसरी, प्रगण्डास्थि तीसरे नम्बर पर, श्रोणि चौथे पर और अनुजंघास्थि पाँचवें क्रम पर आती है । अग्रबाहु में इसकी उत्पत्ति प्रायः करके नहीं मिला करती । अस्थि के दो तिहाई अधोभाग तक अस्थिजनक सङ्कटोत्पत्ति हो सकती है। अस्थिजनक संकटार्बुद की उत्पत्ति में कई कारण लिए जा सकते हैं। इनमें आघात ( trauma ) एक है । पर अर्बुद और आघात के सम्बन्ध को स्पष्टतः जोड़ना बड़ा कठिन होता है । अस्थिभग्नता से किसी भी अस्थीय अर्बुद का सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता । मार्टलैण्ड के अनुसार अस्थिजनक सङ्कट उन व्यक्तियों में भी बन सकता है जो तेजोवर ( radioactive ) पदार्थों पर काम करते हैं । कुछ लड़कियाँ जो तेजोवर द्रव्य का लेप घड़ी के डायल पर कर रही थीं वे मर गई । मृत्यु के उपरान्त जाँच से पता चला कि उनमें २७ प्रतिशत को अस्थिजनक संकट का रोग था । ब्वायड कहता है कि इन लड़कियों की हड्डियाँ सन् ३४९१ ई० तक प्रतिसेकिण्ड एक लाख पचासी हजार एल्फा कण प्रकट करती रहेंगी और इन कर्णो में से प्रत्येक अठारह हजार मील प्रति सैकण्ड के हिसाब से यात्रा करता हुआ होगा । For Private and Personal Use Only το अस्थिक संकट सदैव अस्थिरुहों के द्वारा बनता है । पर्यस्थ के अस्थिजनक अन्तर्भाग से या अस्थि के उपरिष्ठ अन्तरस्थि ( superficial endosteum ) से अस्थिरुह ( osteoblast ) बनता है । अर्बुद में अस्थिनिर्माण की गुप्त शक्ति होती है जिसे उसके कोशा प्रकट करके अस्थिनिर्माण कर भी सकते हैं और नहीं भी । जब वे अस्थिनिर्माण कार्य करते हैं तो अर्बुद में अस्थिकाया के समकोण पर अपूर्ण अस्थि के शुक ( spicule ) तैयार हो जाते हैं इस कारण अर्बुद अपना निजी कंकाल (skeleton ) बनाने लगता है जिसे एक्सरे चित्र द्वारा समझा जा सकता है । इस अर्बुद में तर्कुकोशा होते हैं जो विभिन्नित होकर अस्थ्याभ ( osteoid ) ऊति में बदल जाते निर्माण कर देती है । कहीं हैं और यह ऊति आगे चलकर चूर्णीयित होकर अस्थि का कहीं कास्थि की द्वीपिकाएँ ( islets of cartilage ) भी पाई जाती हैं । यह भले प्रकार समझ लेना होगा कि यह अर्बुद अस्थि के भीतर और बाहर दोनों ओर बड़ी सेजी से बढ़ता है परन्तु इसमें हड्डी का वास्तविक निर्माण बहुत अधिक नहीं होता raft अस्थि निर्माण की शक्ति इसमें पर्याप्त रहती है ।
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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