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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ विकृतिविज्ञान सङ्कट की वृद्धि और अविष्टान की रीति सङ्कटार्बुद सदैव योजीऊति से बनता है अतः जहाँ जहाँ योजीऊति होती है वहीं वहीं वह पाया भी जाता है। यह कहना कठिन है कि वह प्रगल्भ अति द्वारा बनता है या ऊति के भौणिक प्रकार से उत्पन्न होता है। चर्म के तिल या चर्मकीलों द्वारा प्रौढावस्था में इनका श्री गणेश होता है। स्वचा, उपत्वम् ऊति, मांसधराकला, पर्यस्थ, अस्थिमज्जा और लसग्रन्थियाँ ये सङ्कट के सामान्य अधिष्ठान हैं। सङ्कट के नैदानिक लक्षण सङ्कटार्बुद सदैव आरम्भिक और मध्यजीवन, शैशव या प्रौढावस्था में बहुधा उत्पन्न होता है । यह सब प्रकार के अर्बुदों में सर्वाधिक मारात्मक या दुष्ट अर्बुद माना जाता है। यह अपने स्थान पर बहुत अधिक वृद्धि करता है तथा उच्छेदन करने पर बड़े वेग से और पहले से अधिक बढ़ता है और समीप की रचनाओं में अन्तराभरण करता है । यह बहुधा सामान्यित (generalised ) हो जाता है और इसके कारण फुफ्फुस में विस्थाय बन जाते हैं। फुफ्फुस में सङ्कट ३ विस्थाय होने के कारण थूक में रक्त आने लगता है ( रक्तष्ठीवन)। विप्रथन ( dissemination) या सङ्कटकोशाओं का गमन सिरारक्तधारा द्वारा होता है। वह वाहिनी प्राचीर के अपूर्ण निर्माण के कारण हुआ करता है। इस कारण कर्कट की अपेक्षा यहाँ विप्रथन अधिक द्रुतगति से होता है क्योंकि कर्कट का विप्रथन पहले लसंधारा द्वारा होता है फिर बाद में रक्तधारा द्वारा होता है। कास्थिसङ्कटार्बुद तथा लससङ्कटार्बुद का विप्रथन लसधारा द्वारा ही होता है। विस्थाय प्रथमजात सङ्कट के समान ही बना करते हैं। विभिन्न प्रकार के सङ्कटों में विभिन्न प्रकार की दुष्टता भी पाई जाती है परन्तु जो सङ्कट जितना अधिक मृदु, जितना अधिक रक्तपूर्ण और जितना अधिक कम प्रगल्भ योजीऊति के कोशाओं के द्वारा बना हुआ होगा वह उतना ही अधिक दुष्ट होगा। इस कारण मृदुल तर्कुकोशीय सङ्कट कठिन तर्कुकोशीय सङ्कट की अपेक्षा अधिक मारात्मक होता है। कई लघुतर्ककोशा वाले सङ्कट उच्छेद होने के बाद पुनः उत्पन्न नहीं होते जबकि अन्य बहुत से कई बार उत्पन्न होते हैं और विभिन्न अङ्गों में विस्थाय उत्पन्न करते हैं। ग्रीन का कथन है कि तर्कुकोशाओं के आकार का बड़प्पन, उनके कोशारस के विभिन्नन की अनुप. स्थिति और उनमें से बहुतों में एकाधिक न्यष्टियों की उपस्थिति उच्च मारात्मकता के प्रमाण होते हैं। (१) अस्थि का सङ्कटार्बुद __अस्थिरचना से सम्बद्ध ऊति में जो मारात्मक या दुष्ट अर्बुद होते हैं वे सब अस्थि के सङ्कटाबुंदों में गिने जाते हैं। इनका सम्बन्ध रक्त बनाने वाले अस्थिमज्जा के भाग से नहीं होता। अस्थि के सङ्कटार्बुद दो प्रकार के होते हैं: अस्थिजनक सङ्कट (osteogenic sarcoma ) तथा अस्थिदलक सङ्कट ( osteoclastoma ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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