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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७० विकृतिविज्ञान मजकीय कर्कट का एक प्रकार उग्र ( acute ) होता है। इसमें प्रसरणशीलता अधिक होती है। इसे देखकर कोई इसे तीव्र स्तनपाक मात्र हो समझने का भ्रम कर सकता है। क्योंकि इसमें शूल, लाली, सूजन, स्पर्शाक्षमता तथा सितकोशोत्कर्ष आदि लक्षण मिलते हैं । इसका विप्रथन त्वरागति से स्तन और त्वचा में होता है । मजकीय कर्कट का उग्र रूप सदा स्तनपान काल में ही प्रकट होता है। यह कुछ मास में ही समाप्ति कर देता है। ३. ग्रन्थिकर्कट-यह स्तन में बहुत होने वाला कर्कट है । यह मृदुल और पर्याप्त भारी ( bulky ) हो सकता है। इसकी वृद्धि धीरे-धीरे होती है तथा मारात्मकता ( malignancy ) भी सौम्य स्वरूप की होती है। आगे चलकर यह त्वचा में व्रणन कर देता है और एक बहुत बड़ा कवकान्वित ( fangating ) अर्बुद स्तन के धरातल पर बन जाता है। कक्षा को लसग्रन्थियाँ थोड़ी सी फूल जाती हैं और उन पर कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ा करता । अण्वीक्षण पर ऐसा मालूम पड़ता है कि स्तम्भाकारी अधिच्छद से घिरे हुई ग्रन्थीय अवकाश हो। स्तन में प्रणालिकीय कर्कट (duct carcinoma) होता है जिसे ग्रन्थिकर्कट के नाम से ले लिया जाता है ।वैसे ग्रंथिकर्कट बहुत कम मिलता है। ४. प्रणालिकीय अंकुरीय कर्कट-यह कर्कट चूचुक के पास की किसी एक बड़ी दुग्धप्रणाली से निकलता है। इसे प्रणालीय कर्कट कहते हैं । कर्कट प्रणालिकीय अंकुराबुंद द्वारा भी उग सकता है। अंकुरीय प्रवर्द्धनकों के मिल जाने से ग्रन्थि जैसी आकृति हो जाती है जिस कारण इसे कोष्ठग्रन्थीय कर्कट (cystadenoma ) भी कहा जाता है। यह अर्बुद बहुत मन्द गति से आक्रमण करता है। इसमें चूचुकीय रक्तस्राव एक मुख्य घटना होती है। अन्तःप्रणालिकीय कर्कट ( Intraduct carcinoma)-अधिच्छदीय परमचय में जब मारात्मकता या दुष्टता आ जाती है तो उस कोष्ठीय खण्डीय परमचय (oystic lobular hyperplasia) को अन्तःप्रणालिकीय कर्कट कह देते हैं। इस नाम का कारण यह है कि कर्कटकोशा इसमें प्रणालिकाओं के भीतर ही रहा करते हैं। यह प्रसरित ( diffused ) हो जाता है। इनमें से कुछ को ब्लडगुड ने कामीडो कर्कट ( Comedo carcinoma) भी कहा है क्योंकि उन्हें काटने से कीटसम निर्मोक ( worm-like casts ) निकलते हैं। स्तन का स्वेदग्रंथीय कर्कट-ईविंग ने इसका नामकरण किया है और इसे खोज निकाला है। उसका कहना है कि यह कर्कट त्वचा और कक्षा में उत्पन्न होता है और इसका उद्भवस्थल स्वेदग्रन्थियाँ होती हैं। इन ग्रन्थियों में जो अधिच्छद होता है उसे फ्रांसीसी स्वेदग्रंथीय अधिच्छद नाम देते हैं तथा जर्मन पाण्डुर अधिच्छद कहते हैं परन्तु लाल रंगा जाने से ब्वायड उसे उषिसप्रिय अधिच्छद (eosinophilic epithelium ) कहता है। डौसन का कथन है कि यह अधिच्छद रक्तग्रन्थि से बनता है। रक्तप्रन्थि की स्वाभाविक अवस्था में यह नहीं बनता बल्कि जब उससे कोष्ट निर्माण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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