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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ७७१ होते हैं तभी बनता है । उस समय अधिच्छद में प्रगुणन के साथ विहास होने से यह रूप आता है। परन्तु स्तन में साधारणतः स्वेदग्रन्थियाँ होने में अभी सन्देह होने से इस कर्कट के सम्बन्ध में भी कोई निश्चित मत नहीं बन पाया। ५. पैगटामय–सर जेम्स पैगट नामक विद्वान् ने सन् १८७४ ई० में इस रोग को प्रकट किया था। यह चूचुक का उकौता या प्रपामा ( eczema ) है। इस रोग के होने के कुछ वर्ष पश्चात् इसी में से स्तन कर्कट बन जाया करता है। चूचुक में यह रोग होने पर वह या तो आई और सरस ( weeping ) हो जाता है या शुष्क और शल्कीय ( sealy ) दिखता है। अण्वीक्षण करने पर प्रभावग्रस्त क्षेत्र की त्वचा में अधिचर्मीय परमदुष्टि दिखलाई देती है। यह पुष्टि वणन होने के पूर्व ही हो लेती है । महत्त्व की बात यह है कि इस रोग में एक विचित्र प्रकार के कोशा पाये जाते हैं जिन्हें पैगट कोशा (Paget cells) कहते हैं । ये कोशा बड़े, स्वच्छ, रसधानीयुक्त होते हैं जिनमें छोटी स्थूल (pyknotic) न्यष्टियाँ होती हैं। ये अधिचर्म में कटे हुए (पंच किए हुए ) अवकाशों के समान लगते हैं । ये आधार के स्तरों में बहुत होते हैं परन्तु वैसे ये अधिचर्म की मोटाई में कहीं भी मिल सकते हैं। उसके नीचे के चर्म ( dermis ) में लसीकोशाओं और प्ररसकोशाओं की भरमार होती है। आगे चलकर अधिचमें में वणन हो जाता है। पैगट के कोशा क्या हैं इस सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं । कुछ इन्हें शाङ्गकोशाओं (prickle cells ) के विहृष्ट रूप मानते हैं और उन्हें मारात्मक (दुष्ट ) नहीं माना जाता पर अधिक प्रचलित मत तो यह है कि स्तन में प्रणालिकाओं में कर्कट हो जाता है उसी से ये कोशा बनते हैं। ऐसा माना जाता है कि दुष्ट स्थल से चलकर ये कोशा अधिचर्मीय स्तर में वपित हो जाते हैं। कभी-कभी अधिचर्मीय स्तर के सिरे पर कोशाओं के बीच में ऐसा चित्र भी देखा जाता है जिसमें पैगट कोशा लसधारा में भरमार कर रहे हों। ऐसा ही दुग्धप्रणालिकाओं में भी देखने में आता है। हैण्डले का मत यह है कि स्तन की दुग्धप्रणालिकाओं में उत्पन्न पैगटामय मन्थर गति से बढ़ने वाला एक कर्कट है और यह जो प्रपामीय ( eczematous ) स्थिति देखी जाती है वह एक प्रकार का शोथ है जो लसधारा के अवरोध के कारण बन जाता है। यह अवरोध कर्कटीय भरमार के कारण हुआ करता है। परन्तु ईविंग का का मत हैण्डले से मेल नहीं खाता है क्योंकि उसने दो विभिन्न प्रकार के विक्षत देखे हैं। एक वह जिसमें कोई अर्बुद मिलता नहीं, प्रगति मन्द रहती है तथा रोग साध्य होता है तथा दूसरा वह जिसमें प्रसर प्रकार का त्वरा उत्पन्न होने वाला कर्कट मिलता है और जिसकी भरमार स्तन में पर्याप्त होती है । यह असाध्य या अतिकष्टसाध्य होता है और इसके विस्थाय भी कई स्थलों पर बनते हैं। स्तन कर्कट गर्ताणुओं (acini ) से न निकल कर सभी दुग्धप्रणालिकाओं की आस्तरण कला से निकलते हैं। शुद्ध गाण्विक कर्कट कभी नहीं मिलता है। कभी For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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