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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ७६६ ( अश्म = पत्थर ) नाम दिया जाता है । अंग्रेजी में इसे स्किरस कहते हैं जिसका अर्थ भी 'कठिन' होता है । कच्ची नाशपाती के काटने में जो शब्द होता है उसी शब्द ( करकराहट grittiness ) साथ यह भी कटता है इसी कारण चाकू के अर्बुद के अन्दर प्रवेश करते ही इसका निदान हो जाता है । इसका कटा हुआ धरातल धूसर ( gray ) होता है जो कहीं भी एक सा या समरस (homogenous) नहीं हुआ करता। उसमें पीली या धूसर धारियाँ ( streaks ) पड़ी होती हैं । कटा हुआ तल न्युब्ज ( नतोदर ) होता है और साधारण तल से नीचे प्रत्याकृष्ट होता है । इसके साथ ही साथ छोटे-छोटे कोष्टक भी रहते हैं । अश्मोपम कर्कट का स्थूल दर्शन इतना स्पष्ट होता है कि बिना किसी वैकारिकी विशारद की सहायता के एक शल्यविद् उसकी पड़ताल बड़ी सरलता से शस्त्रकर्म के समय कर सकता है । इस कर्कट का अण्वीक्षीय चित्र भी सरलता से पहचाना जा सकता है । यह कर्कट सदा किसी प्रणाली के अधिच्छद से उत्पन्न होता है । थोड़े ही समय में उसका ग्रन्थी रूप अर्बुद के रूप में परिवर्तित हो जाता है जिसमें अधिच्छदीय कोशापुञ्ज सघन संधार द्वारा पृथक् किए हुए दिखते हैं। यह संधार इतना सघन होता है कि कर्कट कोशा एक पंक्ति में ही दिखते हैं और वे लसावकाश (lymphspaces ) में ही पड़े रहते हैं । वे छोटे और रंगने पर गहरे रंगते हैं । कहीं-कहीं तो वे पूर्णतः लुप्त भी हो जाते हैं । ये कोशा बहुभुजीय और विखण्डित होते हैं । इनमें विभजनांक बहुत कम मिलते हैं, कहीं-कहीं गोल कोशीय भरमार मिल जाती है । २. मज्जकीय कर्कट । चित्र से - अश्मोपम कर्कट की अपेक्षा यह कम पाया जाता है । वैसे यह उसी की थोड़ी बदली हुई आकृति मात्र होता है जिस कारण से दोनों के बीच विभेदक रेखा खींचना बहुत कठिन कार्य है दोनों के प्रत्यक्ष दर्शन से थोड़े बहुत अन्तर का पता भी चलता है परन्तु अण्वीक्षीय वैसा ज्ञान कम हो पाता है । मज्जकीय कर्कट मस्तुलुंगाभ ( encephaloid ) अर्थात् मस्तुलुंग ( brain ) के समान होता है और अश्मोपम की विशेषता ऊपर बतला चुके हैं । अधिक कोमल होने के कारण मजकीय कर्कट को मस्तुलुंगाभीय कर्कट ( encephaloid carcinoma ) भी कहने का रिवाज रहा है पर मस्तुलुंग से यह बिल्कुल नहीं मिलता । यह कर्कट अश्मोपम के समान गहरी प्रावरणी के साथ या त्वचा के साथ आरम्भ ही में अभिलग्न उत्पन्न नहीं करता । यह कर्कट मृदुल और त्वरावृद्धिकारी होता है । इसके द्वारा जो स्थानिक वृद्धि होती है वह त्वचा में व्रण उत्पन्न कर देती है । उच्छेद करने पर यह कोमल तथा क्षोद्य ( friable ) होता है । अण्वीक्षण करने पर यह बहुत अधिक कोशावान् होता है और इसमें संधार बहुत कम होता है जिसके ही कारण यह इतना कोमल होता है । कोशा बड़े होते हैं । उनमें अनेक विभजनांक होते हैं और वे गोल दिखते हैं । वे बड़े-बड़े द्रव्यों में कहीं-कहीं किसी अवकाश के चारों ओर वे इस प्रकार लगे होते हैं ग्रन्थीय रूप भी दिखने लगता है । ६५, ६६ वि० For Private and Personal Use Only एकत्र रहते हैं। जिससे उनका
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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