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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४६ विकृतिविज्ञान शूल और वृद्धि की स्थिरता और बन्धता ( fixation ) मिल सकती है। कण्ठनाड़ी पर पीड़न होने के कारण श्वासकृच्छ्रता मिल सकती है । जब कर्कट ग्रन्थ्यर्बुद में से उत्पन्न होता है तब वह परिप्रावरित होता है इस कारण विकृतिवेत्ता अण्वीक्षण के नीचे जब तक देखकर पता नहीं देता तब तक कर्कट होने का ज्ञान भी नहीं हो पाता । धीरे-धीरे कर्कट कोशा प्रावर पर प्रभाव डालते हैं और समीपस्थ अंगों तक पहुँचते हैं तथा ग्रैविक लसग्रन्थियाँ प्रवृद्ध होने लगती हैं। कहीं-कहीं कर्कट प्रसर ( diffuse ) होता है और यह प्रसरण आरम्भ में ही पाया जाता है । नियमतः कर्कट बहुत कठोर होता है पर केन्द्र भाग में सकती है । कभी-कभी और कहीं-कहीं तो यह मृदुलता इतनी शकर्मी को उसके संकटार्बुद होने का आभास होने लगता है । कभी-कभी मृदुलता आ अधिक हो जाती है कि 1 अण्वीक्षण करने पर अवटुकीय कर्कट के कितने ही रूप सामने आ जाते हैं। जिनमें मजकीय, ग्रन्थिकर्कटीय तथा अश्मोपम रूप मुख्य हैं । मज्जकीय और ग्रन्थिकर्कटीय ( adenocarcinomatous ) रूप प्रायशः देखे जाते हैं पर अश्मोपम कम मिलता है । विभिन्न कर्कों में तो विभिन्नता होती ही है परन्तु अवटुकग्रन्थीय एक प्रकार के कर्कट में भी उसके अनेक भागों में बहुत अधिक अन्तर देखने में आता है । ब्वायड एक ऐसे ही कर्कट का वर्णन करता हुआ कहता है कि उसका एक भाग मज्जकीय कर्कट था, दूसरे में ग्रन्थिकर्कट का चित्र था, तीसरे में साधारण अधिच्छदीय अतिपुष्टि थी तथा चौथे में श्लेषाभ गलगण्ड था । चारों भागों में केवल गलगण्ड ही मारात्मक नहीं था यद्यपि यह अनेक विस्थायों को उत्पन्न कर सकता था । For Private and Personal Use Only इस रोग की एक महत्त्वपूर्ण घटना सिराओं को आक्रान्त करना रहता है । इस तथ्य को ग्राहम ने खोज कर निकाला है । इस तथ्य से एक बड़ा लाभ यह है कि कुछ अर्बुद जो ऋजु अवटुका ऊति जैसे होते हैं उनमें और इसमें भेद सरलता से किया जा सकता है । कर्कट कोशाओं और वाहिन्य अन्तश्छद के मध्य में कोई संयोजी ऊति की रुकावट नहीं होती इस कारण पतली प्राचीरों को पार कर कर्कट कोशा सिराओं के भीतर भी देखे जा सकते हैं। सिराओं में इन कोशाओं की इसका विस्तार रक्तधारा द्वारा दूरस्थ अंगों में होता है ( innominate vein ), उत्तरा महासिरा से लेकर दक्षिण इसके विस्थाय बनते हैं । विस्थायों के सम्बन्ध में भी कुछ जान लेना आवश्यक है । अवटुकाग्रन्थीय कर्कट के विस्थाय या तो फुफ्फुसों में देखे जाते हैं या फिर अस्थियों में बनते हैं। कशेरुका, करोटि की अस्थियाँ तथा लम्बी अस्थियाँ कहीं भी उत्तरजात वृद्धि देखी जा सकती है। कभी-कभी ऐसे भी वर्णन देखने में आते हैं जहाँ अवटुका पूर्णतः ऋजु हो या साधारण गलगण्ड वा ग्रन्थ्यर्बुद से पीड़ित हो पर विस्थायों में अवटुकाग्रन्थि के प्रकृत स्वरूप का पदार्थ उपलब्ध होता है । किन्तु ब्वायड ऐसे वर्णनों को कपोलकल्पित मानता है । विस्थायकारी गलगण्ड उपस्थिति का अर्थ है कि और गलमूलिका सिरा अलिन्द तक के प्रदेश में
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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