SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 797
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ४. पित्ताशय कर्कट ( cancers of the gall bladder )। ५. सर्व किण्वीय कर्कट ( pancreatic carcinoma )। ६. अवटुकीय कर्कट (thyroid carcinoma )। ७. पोषणिका ग्रन्थिकर्कट ( cancers of the pituitary body ) । ८. अधिवृक्क ग्रन्थिकर्कट ( cancers of adrenals )। ९. मूत्रसंस्थान के कर्कट ( cancers of urinary system)। १०. पुरुष प्रजननाङ्गीय कर्कट ( cancers of male genitals )। ११. स्त्रीप्रजननाङ्गीय कर्कट ( cancers of female genitals )। १२. स्तन कर्कट ( cancers of the breast ) ७२१ ( १ ) श्वसनसंस्थान के कर्कट मुख, ग्रसनी, तुण्डिका, जिह्वा आदि अंगों की दृष्टि से विचार महास्रोतीय कर्कट. प्रकरण में आगे किया गया है । श्वसनसंस्थानीय कर्कटों में निम्न अंगों के कर्कटों का विचार प्रस्तुत किया जावेगा : (१) स्वरयन्त्र, (२) फुफ्फुस तथा (३) फुफ्फुसच्छद । १ — स्वरयन्त्रीय कर्कट ( Cancer of the Laryux ) स्वरयन्त्र का कर्कट स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक देखा जाता है । इसके तीन मुख्य हेतु हैं— बोलने का अतियोग, स्वरभेद का हेतु देते हुए शास्त्र में लिखा है अत्युच्चभाषणविषाध्ययनाभिघातसंदूषणैः प्रकुपितः पवनादयस्तु । स्रोतःसु ते स्वरवहेषु गताः प्रतिष्ठां हन्युः स्वरं भवति चापि हि षड्विधः सः ॥ तम्बाकू पीना तथा मद्यपान । यह कर्कट प्राथमिक विक्षत ( primary lesion ) के रूप में प्रायः होता है पर कभी कभी जब अवटुका ग्रन्थि, ग्रसनी का गम्भीर भाग अथवा जिह्वामूल में कर्कट हो तो वहाँ से वह स्वरयन्त्र तक जा सकता है । For Private and Personal Use Only निदान की दृष्टि से स्वरयन्त्रीय कर्कट अन्तः ( extrinsic ) दो प्रकारों में बाँटा जा सकता है । उनके नीचे की स्वरयन्त्र की श्लेष्मलकला में होता है । यह शल्ककोशीय ( squamous-celled ) होता है इसे अधिचर्माभ कर्कट भी कहा जाता है । इसका विकास बहुत धीरे धीरे होता है और दो वर्ष तक रह सकता है । बहिः कर्कट घाटिका अधि जिह्वीय क्षेत्र ( aryepiglottidean region ), दोनों के खात या अधिजिह्वा पर भी हो सकता है । यह स्तम्भ कोशीय ( columnar-celled ) होता है । इसे अन्तर्वर्ती कर्कट की कोटि में रखा जाता है । इसका विकास बहुत शीघ्र होता है । इसके फल स्वरूप स्वरसादादि विकार बहुत शीघ्र लगते हैं । इसके कारण गले की लसग्रन्थियाँ फूल जाती हैं । ६१, ६२ वि० ( intrinsic ) तथा बाह्य अन्तः कर्कट स्वरयन्त्री और
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy