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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०६ अर्बुद प्रकरण (८) लसवाहिनियाँ बहुत स्वतन्त्रतापूर्वक अवकाशिकाओं से अपना सम्बन्ध रखती हैं यही कारण है जो कर्कट का लसाभग्रन्थियों से प्रगाढ सम्बन्ध रहता है। अवकाशिकाएँ लसावकाश माने जा सकते हैं जिनके किनारे-किनारे अधिच्छदीय स्तम्भ उगते हैं क्योंकि यहीं प्रतिरोध की रेखा सबसे हलकी होती है । ___ कर्कट के प्रकार कर्कट अधिच्छद में उत्पन्न होता है। अधिच्छद के कई प्रकार होते हैं, अतः कर्कट भी कई प्रकार का हो सकता है। जिस प्रकार के अधिच्छद में उसका जन्म होता है उसी प्रकार की विशेषताओं से युक्त कर्कट देखा जाता है। जो कर्कट स्तृताधिच्छद ( stratified epithelium ) से निकलता है उसका विकास उसी क्रम से होता है और अन्त में उसमें कदरीकरण ( cornification ) होता है तथा अधिकांश में शितानकोशा ( prickle cells) देखे जाते हैं। स्तम्भाकार अधिच्छद में उत्पन्न कर्कट अपनी रचना को यथावत् बनाए रखता है तथा खुले अवकाशों को घेरे रहने का निरन्तर यत्न करता है। कभी-कभी कोशा प्रगुणित होकर उन अवकाशों को भर भी देते हैं। सबसे बाहरी भाग के कोशा अपनी रम्भाकार आकृति को स्थिर रखते हैं। गाण्विक ग्रन्थियों ( acinous glands ) के कोशा अपने जैसे ही कोशा तैयार करते हैं परन्तु पीडन के कारण उनकी आकृति बहुत बदली हुई देखी जाती है। इस प्रकार अपने मौलिक रूप को स्थिर रखने के कारण ही शल्कीय, स्तम्भाकारी तथा गाण्विक कर्कट के नाम से कर्कट पुकारा जाता है। शल्कीय कर्कट को अधिच्छदार्बुद ( epitheliomata) भी कहा जाता है क्योंकि उसकी आकृति प्रकृत अधिच्छद के सदृश ही होती है। एक प्रकार का कर्कट दूसरे प्रकार में बदल जाया करता है। स्तृताधिच्छद से निकला हुआ कर्कट कभीकभी कदरीभूत नहीं होता जब कि स्तम्भाकारी कर्कट स्तृताधिच्छदीय कर्कट जैसा दिखाई देता है। वह शल्काधिच्छदीय कर्कट के समान भी हो जा सकता है। ऐसा परिवर्तन श्वसनिका, गर्भाशय तथा पित्ताशय में उत्पन्न कर्कटों में देखा जाता है। कोशा प्रकार निश्चित हो जाने पर भी वैकारिकी विशारदों ने कर्कट को २ स्थूल प्रकारों में विभाजित कर दिया है जिनमें एक को ग्रन्थिकर्कट (adeno-carcinoma) और दूसरे को साधारण कर्कट ( carcinoma simplex ) कहा जाता है। यह वर्गीकरण भी अन्यों की भाँति स्वेच्छ है तथा दोनों प्रकार के कर्कटों में कोई खास विभाजन रेखा खींची भी नहीं जा सकती। किसी भी प्रकार का कर्कट हो मूलकर्कट की सभी विशेषताएँ उसके उत्तरजात स्वरूप में ज्यों की त्यों उतर आती हैं। कर्कट की वृद्धि की गति तथा संधार की उपस्थिति का अनुपात अवश्य बदल सकता है। आभ्यन्तरीय अंगों की उत्तरजात वृद्धियों का विकास बहुत तेजी से होता है वे बहुत अधिक रक्तान्वित तथा मृदु होती हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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