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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान कर्कट के विविध प्रकारों का वर्णन करने के पूर्व हम उसके २ स्थूल रूपों का विचार करना परमावश्यक समझते हैं। इनका नामोल्लेख पहले हो चुका है। इनमें एक प्रकार ग्रन्थिकर्कटों का है और दूसरा प्रकार साधारण कर्कटों का है। ___ ग्रन्थिकर्कट-इस वर्ग के कर्कटों में सामान्य लक्षण निम्नलिखित देखने में आते हैं-(१) इनकी वृद्धि गुरु ( bulky ) तथा मृदु ( soft) होती है। (२) रचना अंकुरीय ( papillary ) होती है। (३) जिस अंग में ये उत्पन्न होते हैं उसमें अधिक अन्दर तक प्रवेश न करके उससे दूर ही बढ़ते हैं। (४) रचना की दृष्टि से ये अङ्कुराबुंद के सदृश होते हैं और वे मूल अंग से पर्याप्त मिलती-जुलती आकृति की वृद्धि करते हैं। (५) अन्य कर्कटों की अपेक्षा इस कारण उनमें दौष्ट्य कुछ कम होता है उनमें बहुत भयानक स्वरूप के भी कर्कट बन सकते हैं परन्तु वे प्रादेशिक लसग्रन्थियों पर प्रायः आक्रमण नहीं करते इस कारण से इनका उच्छेद सरलता से हो सकता है । (६) ये कर्कट बहुत अधिक कोशीय वृद्धि करते हैं तथा किसी-किसी में संधार की मात्रा बहुत कम होती है। (७) इनमें विद्रधिभवन शीघ्र होता है, ऊतिनाश खूब होता है तथा उनसे रक्तस्राव सरलता से होता रहता है। (८) इसी वर्ग के जो कर्कट बृहदन्त्र में बनते हैं उनमें कर्कटकोशाओं का प्रतिक्रियात्मक तान्तव संधार उत्पन्न हो जाता है। जब वह तान्तव ऊति संकोच करती है तो साथ ही साथ बृहदन्त्र का सुषिरक भी छोटा पड़ जाता है। ऐसे तान्तव या उपलोपम ग्रन्थिकर्कट क्लोम (सर्व किण्वी ) ग्रन्थि, स्थूलान्त्र तथा मलाशय में देखे जाते हैं। ___ग्रन्थिकर्कट वैसे तो किसी भी अधिच्छदीय अंग में बनते हैं परन्तु निम्न अङ्गों में विशेष करके देखे जाते हैं आमाशय, उण्डुक, मलाशय, वृक्क, वक्षस्थल, बीजकोप । वक्ष और बीज ग्रन्थि में वे कोष्ठक ( cysts) का निर्माण करते हैं। अन्य में इनका स्थूल स्वरूप अन्त्रावरोध भी कर सकता है तथा अन्त्रान्त्रप्रवेश ( intussusception ) भी हो सकता है यदि अर्बुद अपने भार से नीचे की ओर खिसक जावे । . शल्कीयाधिच्छदों में ग्रन्थिकर्कट कम देखने में आते हैं। गोभी के फूल के समान ये अन्नप्रणाली अथवा त्वचा पर भी देखे जा सकते हैं। . साधारण कर्कट की अपेक्षा ग्रन्थिकर्कट में एक प्रवृत्ति श्लेपाभ विहास (अपजनन) की होती है। यह परिवर्तन विहास के कारण होता है न कि मूल उति में श्लेपि ( mucin) बनने से हो । दुष्ट कर्कट कोशाओं में सूक्ष्म श्लेषाभ बिन्दुकों की उत्पत्ति के साथ यह विहास प्रारम्भ करता है । ये विन्दुक एक दूसरे से मिल कर कोशा को फुला देते हैं। कभी कभी इस प्रफुल्लता में कोशा की न्यष्टि एक कोने की ओर जा पड़ती है तथा कोशा भी स्वयं बहुत चिपटा हो जाता है और देखने में मुद्रिकावत् (signet ring cell ) हो जाता है। आगे चलकर कोशा नष्ट हो जाता है और उसका स्थान रचनाविहीन श्लेषाभ पदार्थ ले लेता है यह परिवर्तन पुराने भागों में ही होता है इस For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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