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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६४ विकृतिविज्ञान है तथा जिसको तारकोल कर्कट हो उसमें दूसरे अर्बुद का प्रतिरोपण सफलतापूर्वक किया जा सकता है। सारांश यह है कि कर्कटजनन में तीन कारक विशेष माग लेते हैं--(१) कर्कटजनक अभिकर्ता (२) अनुहृपता जिसका सम्बन्ध कुलज प्रवृत्ति के साथ रहता है तथा (३) समय । यदि कर्कटजनक उद्दीपन ( carcinogenic stimulus) पर्याप्त हो तथा प्राणी में अनुहृषता उच्च हो तो तुरत कर्कट उत्पन्न होगा। यदि उद्दीपना कम हो पर अनुहृषता अधिक हो तो भी पैदा होगा । यदि उद्दीपना अत्यधिक तथा अनुहृषता कम हो तब भी कर्कटोत्पत्ति होगी पर बाद के दोनों उदाहरणों में समय पहले की अपेक्षा अधिक लगेगा। पर जहाँ उद्दीपक अभिकर्ता और अनुहृषता दोनों ही बहुत कम हों वहाँ कर्कट बहुत देर में होगा। यदि अनुहृषता बिल्कुल न हो पर कर्कटजनक उद्दीपना पहुँचाई जावे तो अतिदीर्घकाल में कर्कटोपत्ति हो भी सकती है और नहीं भी। अनुहृषता होने पर भी उद्दीपना न मिले तो यह आवश्यक नहीं कि कर्कट बन ही जावे । आघात-आघात के कारण कुछ प्रकार के अर्बुद बन सकते हैं यह सत्य हो सकता है पर आघात का कारण सदैव अर्बुदकारक हो या यह इसका प्रायिक हेतु हो यह कभी नहीं माना जा सकता। ऐसा माना जाता है कि बालकों के शरीर में मध्यस्तरकृत ( mesoblastic ) ऊति में पुनर्जनन की अपरिमित शक्ति निहित होती है। जब किसी प्रकार बालकों में आघात लग जाता है तो यह शक्ति अनियन्त्रितरूप में उबल पड़ती है और संकटार्बुद को जन्म देती है। कुछ संकटार्बुद तो परमचयिक व्रणशोथात्मक या उपशम विक्षतों ( reparative lesions ) के रूप में बनते हैं और कुछ कणनीयऊति की प्रक्रिया (granulomatous process ) से मिलते. जुलते हैं। इस बाद के प्रकार में लससंकटार्बुद आ सकता है। दूसरे अत्यधिक शीघ्र बढ़ने वाली कणनीयऊति को संकटार्बुदीय प्रक्रिया समझने की भूल भी हो सकती है। जो लोग दुष्टाबुंदीय वृद्धि को विषाणुजन्य मानते हैं उनकी बात आघात जन्य कर्कटोत्पत्ति से समझना कुछ आसान भी है। क्योंकि जैसे आघात लगने से अस्थि में विविध जीवाणु अस्थिमजापाकोत्पत्ति कर देते हैं वैसे ही आघात के कारण कुछ विषाणु अर्बुदोत्पत्ति भी कर सकते हैं यह मत यहाँ ठीक-ठीक उतरता प्रगट होता है। कर्कट होने के लिए जो प्रक्रिया लागू होती है वह वर्षों चलती है तथा जिस ऊति में चलती है उसके कोशाओं के चयापचय में परिवर्तन हो जाता है। इस कारण केवल एक बार के आघात का कोई आश्चर्यकारक परिणाम न निकले तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है पर कभी-कभी अन्दर-अन्दर ऊति में दुष्टार्बुदीय जड़ जम चुकी हो तो एक बार के आघात में भी परिणाम निकल सकता है। कई बार आघात जीर्ण प्रक्षोभ में आता आता है जिसे हम आगे लिख रहे हैं। जीर्ण प्रक्षोभ-जीर्ण प्रक्षोभ का हेतु अर्बुदोत्पत्ति में इतना दिया जाता है और इतने समय से दिया जाता रहा है कि इसे छोड़ा नहीं जा सकता । परन्तु जीर्ण प्रक्षाभ For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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