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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ६६५ के कारण होने वाले कर्कट के स्थान भी निश्चित से देखे जाते हैं और ये स्थान वही होते हैं जहाँ आघात बार-बार होता है या दबाव कई बार पड़ता है । इनमें निम्न चार स्थल प्रसिद्ध हैं : ( १ ) अम्नप्रणाली का प्रथम तृतीयांश जो ग्रसनिका से मिलता है । ( २ ) अन्नप्रणाली का मध्यम तृतीयांश जिसके ऊपर वामक्लोमनाल ( left bronchus ) का भार पड़ता है । ( ३ ) आमाशय का प्रथम द्वार जो अन्ननलिका से मिलता है । ( ४ ) आमाशय का मुद्रिकाद्वार जो ग्रहणी से सम्बद्ध होता है । क्षुद्रान्त्र में दुष्टार्बुद न होकर बृहदन्त्र में देखने में आते हैं जिसका कारण कि वहाँ मल के पिण्डों का आन्त्रप्राचीर से सम्बन्ध आता है और उनका दबाव भी पड़ता है । मलाशय और गुद जहाँ यह दबाव अत्यधिक देखा अर्बुदोत्पत्ति के लिए प्रसिद्ध स्थल है । व्रणों के किनारे जहाँ प्रक्षोभ बहुलता से पाया जाता है प्रायः अधिच्छदार्बुद को उत्पन्न करने के महत्व के स्थान होते हैं । स्वक्पाक ( dermatitis ) के कारण जहाँ निरन्तर प्रक्षोभ होता है वहाँ यदि afaणों द्वारा और प्रक्षोभोत्पत्ति की जावे तो कर्कट उत्पन्न हो सकता है । तारकोल, काजल, चिमनी की कालोंच, पैराफीन आदि के साथ कार्य करने वालों में इन द्वयों के कारण होने वाले प्रक्षोभ के कारण पहले तो व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया होती है पर वही कर्कटोत्पत्ति का कारण भी बनती है क्योंकि निरन्तर बहुत काल तक प्रक्षोभ अर्बुदोत्पादक हुआ करता है । यही है उस पर जाता है यक्ष्माजन्य चिरकालीन लसग्रन्थिपाक (lymphadenitis ) का परिणाम लससंकटार्बुद (lymphosarcoma) में हो सकता है तथा अस्थि वा पेशी फिरंग जब बहुत पुरानी हो जाती है तो वह भी संकटार्बुद के समकक्ष रूप धारण कर लेती है | अधिच्छदीय रचनाओं का जहाँ तक सम्बन्ध है वहाँ तक फिरंग और यक्ष्मा पूर्वकर्कटकर अवस्थाएँ मानी जाती है । कुष्ठियों के विक्षतों में भी कर्कट देखा जाता है तथा जिह्वा पर फिरंगजन्य पाक हो जाने से अथवा सितघटन ( leucoplakia ) होने से जिह्वा में कर्कट होता हुआ पैरों में होने वाले व्रण जिनका इतिहास वर्षों का मिलता है कदापि कर्कट में परिणत नहीं होते, आमाशयिक व्रण जो वर्षों रहता है वह भी ६ प्रतिशत को छोड़ कर कर्कट में नहीं बदलता, यक्ष्मा और फिरंग के विक्षतों में से भी बहुत ही कम कर्कट या संकार्बुद में परिणत होते हैं । यह सब हमें इस ओर भी संकेत करता है कि केवल मात्र अधिक काल तक प्रक्षोभ होता रहे और प्रक्षोभस्थली कर्कटीभूत हो जावे ऐसा नहीं है बल्कि कुछ और भी आवश्यक है । जीर्ण प्रक्षोभ के समान ही विषों का परिणाम भी कर्कटोत्पादक हो सकता है । संखियाविष का परिणाम जब उसे अधिक काल तक सेवन किया जावे तो कर्कटोत्पत्ति देखा जाता है For Private and Personal Use Only I
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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