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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रणशोथ या शोफ स्तृतकला ( basement membrane ) फूल जाती है तथा सम्पूर्ण श्लेष्मलकला सूज जाती है। इसमें सम्पूर्ण लसाभ रचनाएँ प्रभावित होती हैं। लसस्यूनिकाएँ (lymph-follicles ) सूज जाती हैं, उनके आधेय ( contents ) मृदु हो जाते तथा उनमें सूक्ष्म विद्रधियाँ बन जाती हैं, वे जब फूटती हैं तो पूय श्लेष्मा के साथ मिल जाता है और उन स्थानों पर व्रण बन जाते हैं। आन्त्र, अन्त्रपुच्छ तथा ग्रसनी के व्रणशोथों में ऐसी दशा पर्याप्त मिलती है। ____जब व्रणशोथ की तीव्रावस्था समाप्त हो जाती है और जीर्णावस्था आ जाती है तो स्थानिक अधिरक्तता घट जाती है परन्तु सितकोशाओं का बहिर्गमन जारी रहता है, अधिच्छदीय कोशाओं का विशल्कीकरण तथा गुणन (desquamation & multiplication) चलता रहता है तथा अधः अधिच्छदीय ऊति ( subepithelial tissue ) में सितकोशाओं की पूर्णतः भरमार रहती है। आगे चलकर अधिच्छद और उसकी ग्रन्थियों में अपोषक्षय ( atrophy ) होने लगता है जब कि अधः अधिच्छदीय संयोजक ऊति में लसीकोशा, प्ररसकोशा और तन्तुरुहों की भरमार प्रारम्भ हो जाती है जो अन्ततोगत्वा तन्तूत्कर्ष ( ( fibrosis ) में जाकर समाप्त होती है। अधः अधिच्छदीय संयोजक ऊति में जो-जो परिवर्तन होते हैं उन्हीं के साथ-साथ लसाभस्यूनिकाओं में व्रणशोथात्मक वर्धन ( enlargement ) होने के कारण श्लेष्मलकला का रूप ग्रन्थिकात्मक (nodular ) या कणात्मक (granular ) होजाता है। तन्त्विमय व्रणशोथ-श्लेष्मल कला के शोथ का यह एक दूसरा प्रकार है। इसकी विशेषता का कारण एक कूटकला ( false membrane ) का निर्माण हो जाना है। इस कूटकला को प्राचीनों ने अङ्कुर या मांसांकुर नाम से कहा है। रोहिणी नामक रोग में यह कला विशेष करके उत्पन्न होती है अतः तन्त्विमय के स्थान पर रोहिणिक नाम से भी इस व्रणशोथ का वर्णन किया गया है। तन्त्विमय व्रणशोथ निम्न अवस्थाओं में मिलता है: १. रोहिणी गदाणु ( clostridium diphtheri ), मालागोलाणु या फुफ्फुस दण्डाणु ( pneumo bacilli) द्वारा उत्तुण्डिका ( tonsils) स्वरयन्त्र (larynx) के व्रणों ( wounds ) या अन्य भागों में । __२. स्निग्ध दग्ध ( scalds ) द्वारा भी जैसे गर्म दुग्ध या वायु से जल जाने पर मुख में तन्त्विमय व्रणशोथ देखा जा सकता है। ३. दाहक रासायनिक पदार्थों के कारण तेजाब या दाहक सोडा पीने से यह मिलता है। ४. बस्ति में तीव्र बस्तिपाक (oystitis) की कुछ अवस्थाओं में अथवा प्रसव के उपरान्त भी यह मिल सकता है। * मांसाकुराः कण्ठनिरोपिनाः स्युः। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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