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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ विकृतिविज्ञान लस्यावकाश में संसर्ग पहुँच जाता है । तलीय अपिच्छद में व्रणशोथ होने से स्थानिक ऊतिनाश होकर व्रणन ( ulceration ) होजाता है पर ऊतियों में भीतर व्रणशोथ विधि ( abscess ) बनती है । इस प्रकार हमने व्रणशोथों में औतिकीय चित्र के विभेदकारक कारणों पर थोड़ा सा प्रकाश डाला है ताकि पाठक आगे जहाँ कहीं व्रणशोथों का ऊति विशेष की दृष्टि से वर्णन किया जावेगा उसमें प्रत्यक्ष होने वाले विभेदों को देखकर चौंके नहीं । शोथ के नैदानिकीय प्रकार यद्यपि यह सत्य है कि व्रणशोथात्मक प्रक्रिया सदैव एक ही रहती है पर प्रक्रिया की उग्रता तथा प्रभावित स्थान के आधार पर उसके सम्बन्ध में विभिन्न शब्दावली प्रयुक्त होती है अतः विशिष्ट व्रणशोथ प्रविचार को प्रकट करने के पूर्व हम व्रणशोथ के विविध नैदानिकीय प्रकारों का वर्णन करेंगे। इनमें श्लेष्मलकला एवं लस्यकला के व्रणशोथ प्रमुख हैं । श्लेष्मकला के व्रणशोथ -- श्लेष्मलकला ( mucous membrane ) के व्रणशोथ दो प्रकार के होते हैं :( १ ) परिस्रावी ( catarrhal ) ( २ ) तन्विमय ( fibrinous ) परिस्रावी व्रणशोथ - इसमें निःस्राव ( exudation ) सदैव तरलावस्था में रहता है तथा वह श्लेष्मल, श्लेष्म- पूय ( muco-purulent ) या सपूय ( purulent ) इन तीनों में से किसी भी प्रकार का हो सकता है । श्लेष्मल प्रसेक में श्लेश्मल ग्रन्थियों के द्वारा प्रचुर मात्रा में श्लेष्मा का निर्माण होता रहता है । यह श्लैष्मिक स्त्राव या तो ग्रन्थि के ऊपर चिपटा रहता है, जैसा कि ग्रसनीपाक ( pharyngitis ) में प्रकट होता है, या लस्यनिःस्राव के साथ मिलकर बाहर निकल आता है । लस्य - श्लेष्म स्राव कभी कभी पूर्णतः स्वच्छ होता है पर जब इसमें थोड़े या बहुत कोशा भी आ जाते हैं तो यह कम या अधिक पारान्ध ( opaque ) हो जाता है । कोशाओं में मुक्त ( escaped ) सितकोशा तथा विशल्कित अधिच्छदकोशा ( desquamated epithelial cells) होते हैं । नासा के प्रतिश्याय या पीनस नामक विकारों में कभी स्वच्छ स्राव देखा जाता है कभी प्रगाढ या घन या परिपक्व स्राव देखा जाता है यह इसी श्लेष्मल प्रसेक या परिस्राव का स्थूलतम उदाहरण है । यदि प्रक्षोभ का कारण उग्र हुआ तो सितकोशा स्राव में अधिक मात्रा में निकलने लगते हैं इस कारण स्रावित तरल श्लेग्मपूय या सपूय हो जाता है । इन अवस्थाओं मैं अधिच्छद ( epithelium) पर्याप्त मात्रा में विशल्कित ( desquamated ) हो जाती है उसके नीचे की ऊतियों में सितकोशाओं की भरमार हो जाती है । अधः For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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