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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २८ www.kobatirth.org विकृतिविज्ञान ५. अन्त्रपुच्छ में किसी कठोर पदार्थ के कारण जब उपसर्ग भी हो तो यह मिलता है । ६. प्रवाहिका में आन्त्र में यह शोथ देखा जा सकता है। ७. अभि मिलता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्वसनिकापाक ( plastic bronchitis ) में भी यह देखने को यह व्रणशोथ विभिन्न सिध्मों (patches ) के रूप में देखा जाता है । कूटकला का सिम छोटा या बहुत बड़ा हो सकता है । कूटकला का रंग आपीत या आधूसर श्वेत होता है । यह सुदृढ़ या मृदु कैसी भी देखी जाती है । यह अत्यधिक रक्तरंजित भी मिल सकती है । कूटकलाएँ भी प्रभावित ऊति की गहराई के अनुपात में विभिन्न प्रकार की होती हैं । यदि अधिच्छद का केवल धरातल ही नष्ट हो रहा हो तो जो कला बनेगी वह पतली होगी तथा सरलता से छुड़ाई जा सकेगी । इसमें तन्त्वि के कई स्तर होंगे इन स्तरों के भीतर सितकोशा, विशल्कित अधिच्छदीय कोशा तथा अन्य पदार्थ होंगे । यह कला रक्तपूर्ण श्लेष्मल कला के ऊपर अधिष्ठित होगी जिसके अन्दर भी बहुत से सितकोशा भरे मिलेंगे। यदि सम्पूर्ण श्लेष्मलकला प्रभावित होगी, जैसा कि रोहिणी में देखा जाता "है तो जो कूटकला बनेगी उसे कठिनता से ही पृथक् किया जा सकता है । इस कूटकला के गम्भीर भाग मृत ऊति ( necrosed tissue ) द्वारा बनते हैं । ऐसी कला जब हटा ली जाती है तो जो स्थान रह जाता है उसमें खूब रक्त बहने लगता है । अधिक दिन होने के बाद मृत वा सजीव ऊति-अंशों में भेद करना भी कठिन है। प्रभाव - श्लेष्मल कलाओं पर व्रणशोथ प्रक्रिया का जो प्रभाव पड़ता है वह उन नाल ( tubes ) वा गुहाओं ( cavities ) के आकार तथा क्रिया पर निर्भर करता है। जिनमें व्रणशोथ चल रहा हो । परिस्राव के कारण वेदना तथा अनैच्छिक पेशीग्रह ( spasm of the involuntary muscular tissue ) प्रायश: हुआ करता है । इसी कारण बालातीसार में शूल एवं पेशीग्रह के कारण बालक तिलमिला जाता है । जब प्रभावित नाल छोटे होते हैं और उनके द्वारा निकला हुआ स्राव जब रुक जाता है तो भयङ्कर परिणाम तक देखे जा सकते हैं । यही कारण है कि जब रोहिणी में व्रणशोथ के कारण स्वरयन्त्र तथा कण्ठ नाड़ी का मार्ग अवरुद्ध होने से श्वास * प्रश्वास में बाधा आकर जीवनलीला ही समाप्त हो जाती है । कभी-कभी छोटे-छोटे नालों में व्रणशोथ के कारण इतना तन्तूत्कर्ष हो जाता है कि प्रभावित नाल का मुख ( lumen ) विकृत या सङ्कुचित ( stricture ) होजाता है। इसका प्रमुख प्रमाण पूयमेहगोलाणु के प्रभाव से उत्पन्न हुआ मूत्रमार्ग का संकोच है। अन्य साधारण अङ्गों में इस प्रकार की मार्गगत संकीर्णता ( stricture ) के कारण संकीर्ण भाग के पिछले भाग में संचित तरलयुक्त गाँठें ( retention cysts ) बन जाया करती हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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