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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्य विशिष्ट कणार्बुदिकीय व्याधियाँ नाम जो कितने ही प्रकार के संस्पर्शजन्य त्वग्रोगों के लिए प्रयुक्त होता है (a name applied to several different cutaneous diseases of contagious character ) ऐसा लिखा है। परन्तु चिकित्साशास्त्र में लैप्रोसी से लैप्रादण्डणु (जिसे माइकोबैक्टीरियम लैपी कहते हैं) से होने वाली विशिष्ट व्याधि को ही निस्सन्दिग्धरूप से स्वीकार किया जाता है। इसीलिए जहाँ साधारण स्वरोगों को क्षुद्रकुष्ठ संज्ञा दी गई है वहाँ इस विशिष्ट रोग को आचार्यों ने महाकुष्ठ कह कर पुकारा है। कुछ की औपगिकता सुश्रुत ने औपसर्गिक रोगों का कारण देते हुए कुछ रोग नाम भी दिये हैं जिनमें कुष्ठ भी एक है प्रसंगाद्गात्रसंस्पर्शान्निःश्वासात् सहभोजनात् । एकशय्यासनाच्चैव वस्त्रमाल्यानुलेपनात् ॥ कुष्ठं ज्वरश्च शोष व नेत्राभिष्यन्द एव च । औपसर्गिक रोगाश्च संक्रामन्ति नरानरम् ॥ 'प्रसंग से अर्थात् मैथुन से अथवा सतत सम्बन्धित रहने से, शरीर का स्पर्श करने से, किसी रुग्ण की श्वास का पुनः श्वसन करने से, साथ भोजन करने से, एक शय्या पर लेटने से या एक आसन पर बैठने से, रोगी के वस्त्र, माला या अनुलेपन का प्रयोग करने से कुष्ठ, ज्वर, शोष और नेत्राभिष्यन्द ( conjunctivitis ) ये चार प्रकार के औपसर्गिक रोग एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में हो जाया करते हैं। उपरोक्त उद्धरण आधुनिक विचारवादियों की दृष्टि से भी पूर्ण युक्तियुक्त है । कुष्ठ एक औपसर्गिक रोग है और औपसर्गिक रोग पायरोग अथवा भूतोपसृष्ट रोग हुआ करता है-'औपसर्गिकरोगादयो भूतोपमर्गजाश्चा।' विसूची के समान तुरत ही कुष्ठ रोग का उपसर्ग नहीं लगा करता बल्कि उसके लिए बहुत काल तक रोगी के साथ रहना, सोना, मैथुन करना, वस्त्र पहनना, मालानुलेपनादि व्यवहार करना होना आवश्यक होता है। इसका संचयकाल इसीलिए बहुत लम्बा माना गया है। ____ महाकुष्ठ केसे फैलता है ? कुष्ठियों के साथ निरन्तर सम्बन्ध ही इसके फैलने का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। कुष्ठदण्डाणु के द्वारा अन्य प्राणियों में कुष्ठ करने के सब उपाय निरर्थक सिद्ध हुए हैं। केवल चिम्पांजी पर किये गये प्रयोग कुछ सफल हुए हैं। सैण्डविच द्वीप पर कुष्ठाश्रम में निरन्तर कार्य करने वाले पादरी डेमियन १८७३ ई० से वहाँ पर थे। उन्हें ९ वर्ष बाद कुष्ठ रोग हुआ और वे १८८९ ई० में परलोक सिधार गये। उसी द्वीप के एक अपराधी में कृत्रिम रूप से कुष्ठोपसर्ग पहुंचाया गया। कुष्ठ के जीवाणुओं के १. सुश्रुत के हा भाव को दूसरे शब्दों में ज्यों का त्यों रखने वाला यह एक आधुनिक विज्ञानशास्त्री का वक्तव्य है--"The mode of spread is unknown, but intimate contact with lepers is essensial, a history of attendance on lepers, of living in the same house, sleeping in the same bed, or sexual connection is frequently obtained" The Practice of Medicine. For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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