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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४२ विकृतिविज्ञान अन्तःप्रवेश के एक मास पश्चात् उसकी बाहु में अन्तर्बाहुका नाडी तथा मध्यबाहुका नाडी ( ulnar and median nerves ) में नाडी पाक आरम्भ हुआ । ढाई वर्ष पश्चात् उसे कुष्ठ या महाकुष्ट के सम्पूर्ण लक्षण प्रकट हो गये तथा जीवाणुप्रवेश के ठीक ६ वर्ष पश्चात् वह रोगी मर गया । यह उदाहरण यह सिद्ध करता है। कि महाकुष्ट या कुष्ठ एक औपसर्गिक रोग है और उसे एक से दूसरे व्यक्ति में उत्पन्न किया जा सकता है । द्यपि कुष्टकारी जीवाणु अश्रु, लालारस, दुग्ध, थूक आदि कई शारीर स्रावों में रहते हैं और वहाँ से उपसर्ग का प्रसार करते हैं परन्तु कुष्ठी के नासास्राव ( nasal secretion ) में ये बहुत बड़ी संख्या में होते हैं और यही स्राव इस रोग के प्रसार का मुख्य साधन माना जाता है । दूसरा साधन कुष्ट व्रणों के स्राव हैं। योनिस्राव, मलमूत्र आदि से भी जीवाणु प्रकट हो सकते हैं । आधुनिक विद्वान् इसमें सन्देह रखते हैं कि कुष्ठ मैथुन द्वारा एक से दूसरे व्यक्ति पर जा सकता है, न उनके पास ऐसा कोई प्रमाण है कि वीर्य या स्त्रीबीज द्वारा उनका गमन होता है । परन्तु जितने थोड़े काल में इस विज्ञान की उन्नति हुई है उसमें ये दोनों बातें सिद्ध होना सम्भव नहीं । आयुर्वेदज्ञों की इस विषय की खोजें सहस्रों वर्षों की हैं और इस दीर्घकालावधि में निस्सन्देह उन्होंने ऐसे प्रमाण स्वयं प्रत्यक्ष देखे होंगे जिसके बल पर इसे मैथुन द्वारा होने वाली व्याधि माना गया है अथवा स्त्रीबीज वा पुंबीज द्वारा उसका आवागमन स्वीकार किया गया है I कुपसर्ग का मार्ग कुष्ठ का उपसर्ग एक व्यक्ति से जब दूसरे व्यक्ति पर पहुँचता है तो वह या तो उसकी त्वचा द्वारा अन्दर जाता है या नासा वा श्वसनसंस्थान की श्लेष्मलकला द्वारा प्रवेश करता है । शरीर में पहुँचते ही वह लसवहाओं में प्रविष्ट हो जाता है जहाँ उसकी वृद्धि होती है जिससे वह कुष्ट कोशाओं ( lepra cells ) का निर्माण कर लेता है । इसके उपरान्त या तो लसवहाओं द्वारा अथवा रक्त के मार्ग से वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होता है । इस महाकुष्ठ रोग का संचयकाल १० से १२ और कभी कभी २० वर्ष का भी हो सकता है । यह प्रकट करता है कि कुष्ठ एक जीर्ण व्याधि है । सर्व प्रथम कुष्ठ का प्रारम्भ कठिन गाँठों से होता है जो माथे पर या नासा पर उत्पन्न होती हैं उसके पश्चात् उत्कोठ ( rash ) होता है । उत्कोठ के दाने अलसी के बीज से लेकर हथेली के बराबर तक बड़े हो सकते हैं। उनके वर्ण में भी भेद पाया जा सकता है । पहले पहल उनका रंग गहरा लाल होता है जो फिर शनैः शनैः बभ्रु हो जाता है । स्वचा की सम्पूर्ण प्रकृतावस्था नष्ट होकर वह शल्कीय ( sealy ) होने लगती है । कुष्ठ का कोई भी रूप हो उसमें कुष्ठ के दौरे उठते हैं । दौरे के समय ज्वर आता है ठण्ड लगती है और रोगी के रक्त में कुष्ठ दण्डाणु देखे जा सकते हैं । दौरे के कारण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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