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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिरङ्ग ६१५ समझने में भूल हो सकती है कि वह जिह्ना का कर्कट हो पर इसके समीप की न तो लसग्रन्थियाँ फूलती हैं और न इसमें इतना काठिन्य होता है जितना कि कर्कट में इस कारण इसे थोड़े ही विचारपूर्वक समझने से पहचाना जा सकता है । फिरंगिक जिह्वापाक उपरिष्ठ और गम्भीर दोनों प्रकार का हो सकता है उपरिष्ठ जिह्वापाक में कोई सुध धरातल रहता है जैसे धूमपान या मदिरापान के कारण जिह्वाल प्रक्षुब्ध हो सकता है ऐसी अवस्था में जिह्नापाक उपरिष्ठ होता है । गम्भीर जिह्वास्तर तक जब व्रणशोथ पहुँचता है तो जिह्वा में विदार हो जाते हैं और उपरिष्ठ अच्छिद एक जगह इकट्ठा होकर दही सा जम जाता है और जिह्वा-पृष्ठ ऐसा लगता है मानो इस पर कोई पच्चीकारी की गई हो। इसे जिह्वा का सितघटन ( leuco. plakia of the tongue ) कहते हैं । फिरंगिक सितघटन कर्कट का पूर्वरूप प्रायः ना करता है और कर्कट जिह्वा के किसी एक विदार में बनता है । अधिच्छदीय प्रगुतिघटन के साथ सदैव हो ऐसा भी नहीं है तथा जिह्वातल मसृण, लाल रंग का तथा व्रणशोथ प्रक्रियाओं के कारण जिह्वांकुरों के अभिलुप्त होने के कारण अपुष्ट भी हो सकता है । गम्भीर प्रकार का जिह्वापाक भी कर्कट का पूर्वरूप हो सकता है । जिह्वा के भीतरी भाग में व्रणशोथात्मक ऊति का निर्माण होता है तथा बाद में तन्तूत्कर्ष होता है जिसकी व्रणवस्तु बनती है, विदर ( fissures) बनते हैं तथा जिह्वा के धरातल पर विषम गाँठ बनती हैं जो इस रोग की विशेष परिचायिका होती हैं । फिरंगिक जिह्वापाक में सामान्यतम जो लक्षण देखे जाते हैं उनमें जिह्वा का परमचय और आकार वृद्धि मुख्य हैं । फिरंगिक परमजिह्वता ( syphilitic or luetic macroglossia ) कभी कभी इतनी बढ़ जाती है कि वह सम्पूर्ण मुखविवर को भर लेती है । अतः परमजिह्वता होने पर सर्वप्रथम फिरंग का अवश्य ध्यान रखना चाहिए । ( ११ ) महास्रोत और फिरंग महास्रोत पर फिरंग का प्रभाव बहुत कम होता है और जो होता भी है वह मलाशय, गुद तथा पायूपस्थान्तराल ( पैरीनियम ) पर ही कहा जाता है। इन स्थानों पर या तो बाह्य फिरंग का प्रथम संदेश बनता है या आभ्यन्तर फिरंग का फिरंगाशं (con. dylomata ) बनता है बाद के वितत फिरंगार्बुदीय होते हैं या जारठीय ( sclerosing ) होते हैं । फिरंगार्बुदीय रूप होने पर मलाशय में इतने गम्भीर ग बनते हैं जो बस्ति तक घुसने के कारण मलाशय बस्तीय भगन्दर ( recto vesical. fistula ) बन जाता है तथा कभी कभी वह गुदककुन्दरखात ( ischio rectal fossa ) में चला जाकर अन्त में स्वचा पर फूटता है । जारठीय रूप होने पर मलाशय के अधोभाग में अधिक व्रणन न होकर सीधा तन्तूत्कर्ष होता है जो For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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