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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१४ विकृतिविज्ञान (८) ओष्ठ पर फिरंग का प्रभाव बाह्यफिरंग का प्रथम संदंश ( primary chanere ) ओष्ठ पर बन सकता है। इसके दो कारण हैं । एक चुम्बन और दूसरा फिरंगपीडिता धाय का दूध पीना। संदंश प्रारम्भ में एक कठिन गाँठ के रूप में बनता है जो बाद में प्रणित हो जाता है और एक संदंश का रूप ले लेता है। इसी कारण इस क्षेत्र को सींचने वाली ग्रन्थियाँ फूल जाती हैं कड़ी हो जाती हैं तथा उनमें वेदना नहीं मिलती। व्रण में सुकुन्तलाणुओं की उपस्थिति सरलतापूर्वक देखी जा सकती है। मुख में फिरंग का प्रभाव मुख की श्लेष्मलकला पर फिरंग के परिणामस्वरूप आभ्यन्तरफिरंग (द्वितीया. वस्था) में दोनों ओर आधूसर श्वेत श्लेष्मल सिध्म (grayish white mucous patches ) बनते हैं। ये सिध्म शम्बूक द्वारा बनाये मार्ग जैसे होते हैं या उपरिष्ठ घ्रण सरीखे होते हैं। ये विक्षत न केवल मुख की श्लेष्मलकला पर ही देखे जाते हैं अपि तु तुण्डिकाग्रन्थियों तथा तालु की श्लेष्मलकला में भी हो सकते हैं। बहिरन्तर्भवफिरंग (तृतीयावस्था ) में फिरंगार्बुदिकाएँ बनती हैं जो टूट कर गहरे छिद्रकित ( punched out ) व्रणों का रूप छोड़ जाती हैं। यह विक्षत प्रायः कठिन तालु पर बनता है और तालु का छिद्रण (perforation ) कर देता है। इसके कारण मुख से खाया हुआ पदार्थ नासा द्वारा निकलता हुआ देखा जा सकता है। फिरंगाईदिकाएँ कोमल तालु तथा गलतोरणिकाओं पर भी बन सकती हैं । (१०) जिह्वा और फिरंग जिह्वा पर बाह्य, आभ्यन्तर और बहिरन्तर्भव तीनों प्रकार के विक्षत बन सकते हैं । बाह्यफिरंग का प्रथम संदंश खूब कड़ा होता है जैसा अन्यत्र मिलता है। उसमें सुकुन्तलाणुओं की उपस्थिति देखी जा सकती है। जिह्वा पर संदंश होने के कारण मुखभूमि के लसग्रन्थक फूलते और कड़े हो जाते हैं जिसके कारण कर्कट का सन्देह हो सकता है। आभ्यन्तरफिरंग के कारण श्लेष्माभसिध्म या उपरिष्ट व्रण जिह्वा पर बन जाया करते हैं। बहिरन्तर्भवफिरंग के कारण या तो जिह्वाव्रण ( ulcer of the tongue ) बनता है या प्रसर जिह्वापाक ( diffuse glossitis ) होती है। जिह्वात्रण जिह्वा पर बने फिरंगार्बुद के टूट जाने के कारण बनता है और वह प्रायशः पृष्ठभाग ( dorsum of the tongue ) पर बनता है इसे देखकर ऐसा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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