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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१६ विकृतिविज्ञान आगे चल कर संकोच ( stricture ) उत्पन्न कर देता है। यह स्त्रियों में अधिक होता है। प्रायः मलाशयादि स्थानों में फिरंग उतना व्याप्त नहीं जितना वंक्षणीय लसकणाबुंद ( lymphogranuloma inguinale ) इस कारण गुदसंकोच का कारण फिरंग न होकर यह अर्बुद ही अधिकतर स्त्रियों में हुआ करता है । (१२) यकृत् पर फिरंग का प्रभाव यकृत् पर सहजफिरंग का जितना अधिक प्रभाव पड़ता है उतना अवाप्त फिरंग का नहीं पड़ता। सहजफिरंग के कारण यकृत् में परिकोशीय यकृदाल्यूत्कर्ष (pericellular cirrhosis ) होता है। इसी को फिरंगिक यकृहाल्यूत्कर्ष ( syphilitic cirrhosis ) भी कहते हैं। यह प्रसर-विक्षत का प्रमाण है । अवाप्त फिरंग के कारण जो विक्षत बनते हैं वे नाभ्य होते हैं उनके कारण फिरंगार्बुद बनते हैं या तन्तूत्कर्ष के स्थानिक क्षेत्र बनते हैं । परिकोशीय यकृहाल्युत्कर्ष या फिरंगिक यकृद्दाल्युत्कर्ष यह उन शिशुओं में देखा जाता है जो सहजफिरंग के कारण मर जाते हैं। जब उनके यकृत् को खोल कर देखते हैं तो यकृत् के कोशाओं के बीच बीच में प्रसर व्रणशोथात्मक तन्तूत्कर्ष की एक सी भरमार पाई जाती है। जो विक्षत बनते हैं वे सम्पूर्ण यकृत् में भी मिल सकते हैं अथवा स्थानिक सिध्मों के रूप में भी रह सकते हैं। यकृत् का आकार बड़ा हो जाता है और उसका वर्ण पाण्डर हो जाता है कहीं कहीं गम्भीर कामला भी मिल सकता है उसका धरातल मसूण और रचना की गाढता रबर जैसी होती है। प्लीहा की भी एक समान वृद्धि साथ साथ देखी जा सकती है क्योंकि वहाँ भी प्रसर तन्तू. स्कर्ष होता है। यकृत् में अत्यधिक तन्तूत्कर्ष होने के कारण उसके अन्दर का पदार्थ बहुत दृढ़ तथा प्रत्यास्थ हो जाता है । ____ अण्वीक्षण से ऐसा पता चलता है कि मानो नयी तान्तवऊति ने यकृत् पदार्थ को असंख्य छोटी द्वीपिकाओं में विभक्त कर दिया हो । प्रत्येक द्वीपिका में कुछ यकृत् कोशा मिलते हैं। कहीं कहीं तो दो ही यकृत् कोशाओं के बीच में ढेर सी तान्तवऊति पाई जाती है। यह तान्तवति असंख्य सुकुन्तलाणुओं की क्रिया से यकृत् के स्वस्थ कोशाओं के टूटने से बनती है। ये सुकुन्तलाणु यकृत् तथा प्लीहा दोनों अवयवों में उचित रूप से देखने में पर्याप्त मिलते हैं। कहीं कहीं यकृत् के कोशा पुनर्जन्म का यत्न करते हुए भी देखे जाते हैं ताकि यकृत् अपनी स्वस्थावस्था प्राप्त कर सके । ऐसे कोशाओं में दो न्यष्टियाँ होती हैं और वे अभिरंजित किये जाने पर गहरा रंग लेती हैं। रोग के आरम्भ काल में तान्तवऊति कोशीय तथा सरक्त ( vascular ) होती है पर बाद में ये दोनों बातें तिरोहित हो जाती हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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