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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यदमा बीजवाहिनीय यक्ष्मा किसी भी अवस्था में देखी जा सकती है परन्तु १६ से २५ वर्ष की लड़कियों में यह अधिकतर मिलती है। इस रोग का मार्ग और परिणाम उष्णवातीय उपसर्ग के समान ही होता है। जब बीजवाहिनी में यक्ष्मपूय भर जाता है तो सपूय बीजवाहिनी ( pyosalpinx ) बन जाती है। जब इसके ऊपर की उदरच्छद भी इससे अभिलग्न हो जाती है तो उसकी आकृति वकभाण्ड (retort) के समान हो जाती है। ___ अन्यन्न यक्ष्मा के कारण नो औतिकीय चित्र देखा जाता है वही यहां भी होता है। बीजवाहिनी में पर्याप्त तन्तूत्कर्ष होता है, उसका सुषिरक संकुचित हो जाता है और कहीं-कहीं तो डमरुमध्य ( isthmus ) विशेष करके प्रभावग्रस्त हो जाता है जिसके कारण बीजवाहिनीय प्राचीर ग्रन्थिकाकृतिक हो जाती है इसे डमरूमध्यीय प्रन्थिकीय बीजवाहिनीपाक ( salpingitis isthmica nodosa ) कहते हैं। बीजवाहिनीय यक्ष्मा के साथ स्थानिक यक्ष्म उदरच्छदपाक देखा जा सकता है जो श्यामाकसम या अभिघट्य यम प्रकार का होता है। यक्ष्मअन्तःगर्भाशयपाक जैसा कि ऊपर कह चुके हैं गर्भाशय में यच्मोपसर्ग का प्रधान कारण बीजवाहिनीय यक्ष्मा ही होता है । ऊतियों के सातत्य के कारण बीजवाहिनी से यक्ष्मा का दण्डाणु सीधा गर्भाशय तक उतर सकता है। गर्भाशय में यक्ष्मोपसर्ग गर्भाशय काया में ही होता है । गर्भाशय ग्रीवा (cervix uteri ) बहुत कम प्रभावित होती है। . श्लेष्मलकला में यदिमकाएँ धूसरवर्णीय श्यामाकसम विक्षतों के रूप में देखने में आती हैं। आगे चलकर वे बढ़ती हैं एक दूसरे से सायुज्यित होती हैं फिर उनमें किलाटीयन होता है और फिर वणन होता है । इस क्रिया के कारण गर्भाशय प्राचीर का अपरदन होने लगता है और आपीत चीरित व्रण बन जाते हैं। यदि गर्भाशयग्रीवा का मुख भी साथ ही बन्द हो गया तो यक्ष्म सपूय गर्भाशय ( tuberculous pyometra ) बन जाता है। रोग के प्रारम्भिक काल में गर्भाशय पेशीस्तर प्रभावित नहीं होता पर आगे चल कर उसका अपरदन होता है और कभी-कभी तो गर्भाशय प्राचीर फट तक जाती है। गर्भाशयग्रीवा में अकेली यच्मा नहीं देखी जाती है। जब गर्भाशय पिण्ड प्रभावित होता है तभी वह भी प्रभावित हो जाती है। वहाँ यक्ष्मा होने पर इतना ऊतिनाश चलता है कि उसे कर्कट से पृथक करना कठिन पड़ जाता है। __ यक्ष्मस्तनपाक यचमोपसर्ग स्तनों में प्राथमिक कभी नहीं होता। या तो वह रक्तधारा द्वारा वहाँ पहुँचता है या सीधा किसी नाभि से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करके पहुंचता है। रक्तधारा द्वारा जो उपसर्ग आता है उसके कारण स्तन की अन्तरालित अति में यचिमकाएँ बनती हैं वे पहले बड़ी होती हैं फिर सायुज्यित हो जाती हैं तत्पश्चात् उनके For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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